झूला तो पड़ गयो अमुआ की डाल पे…
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औरैया, 30 जुलाई (हि. स.)। जनपद की हरी-भरी गलियों में सावन का महीना हमेशा से खुशियों की सौगात लेकर आता था। काले घने बादल, रिमझिम बारिश, मोर की कूक और पपीहे की मधुर पुकार… मानो पूरी प्रकृति ही झूम उठती थी। आम और नीम के पेड़ों की डालों पर झूलों की कतारें, नवविवाहिताओं की खिलखिलाती हंसी और कजरी गीतों की मीठी गूंज – यही तो था गांवों में सावन का असली उत्सव।

लेकिन अब यह नजारा कहीं खो गया है। भौतिकवादी जीवनशैली, मोबाइल और टीवी की चकाचौंध, और पेड़ों की घटती संख्या ने इन परंपराओं को जकड़ लिया है। कभी गांवों की चौपालों पर बच्चे, युवा और बुजुर्ग बैठकर वीर रस के आल्हा, मल्हार और कजरी गीत गाते थे। लोग रामचरित मानस और राधेश्याम रामायण का पाठ कर वातावरण को आध्यात्मिक बना देते थे। वहीं, नवविवाहिताएं मायके आकर झूलों पर बैठकर झूला तो पड़ गयो अमुआ की डाल पे जी… जैसे गीत गाती थीं।

अब यह परंपरा बच्चों तक सिमट गई है। अजीतमल तहसील क्षेत्र के ग्राम ततारपुर में कुछ बालिकाएं अब भी पेड़ों पर झूला डालकर सावन का आनंद लेती दिखाई देती हैं, लेकिन यह संख्या न के बराबर है। लोग कहते हैं कि पहले सावन का महीना रिश्तों में नजदीकियां बढ़ाने और गांव में मिलनसारिता का प्रतीक था। लेकिन आज गांवों में भी शहरों जैसा एकाकी जीवन घर कर गया है।

80 के दशक की यादें ताजा करते हुए हैदर पुर निवासी वरिष्ठ पत्रकार पंडित सुवीर बताते हैं कि उस समय सावन में पूरे गांव में उत्साह का माहौल होता था। खेतों में लहलहाती हरियाली और चौपालों पर गीत-संगीत की गूंज हर किसी का मन मोह लेती थी। पर अब यह उत्सव धीरे-धीरे सिसकियां भर रहा है।

काले बादलों से सजे आसमान के नीचे झूलते झूले अब दुर्लभ हो गए हैं।

जो परंपरा कभी गांवों की जान हुआ करती थी, वह अब केवल यादों में सिमटकर रह गई है।

हिंदुस्थान समाचार / सुनील कुमार

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हिन्दुस्थान समाचार / सुनील कुमार