डिंपल यादव पर रशीदी की टिप्पणी : अभिव्यक्ति की आज़ादी या विकृत वैचारिक मजहबी उग्रता?
लेखक फाेटाे -डॉ. मयंक चतुर्वेदी


डिंपल यादव पर रशीदी (फाइल फोटो)


- डॉ. मयंक चतुर्वेदी

समाजवादी पार्टी की सांसद डिंपल यादव पर हाल ही में टीवी डिबेट के दौरान की गई ऑल इंडिया इमाम एसोसिएशन के अध्यक्ष मौलाना साजिद रशीदी की आपत्तिजनक टिप्पणी ने सार्वजनिक विमर्श में फिर एक बार धार्मिक कट्टरता, स्त्री विरोध और सामाजिक ध्रुवीकरण के गंभीर प्रश्नों को जन्म दिया है। यह घटना केवल एक व्यक्ति की बयानबाजी नहीं, बल्कि उस वैचारिक प्रवृत्ति का हिस्सा है, जो धर्म की आड़ में व्यक्तिगत स्वतंत्रता, संविधानिक गरिमा और सार्वजनिक संवाद के स्तर को लांछित करती है । साथ ही स्‍त्री के ‘स्‍व’ को देह और कपड़ों में बंद कर सीमित रखना चाहती है।

रशीदी ने एक ओर सांसद इकरा हसन के सिर ढंकने को आदर्श बताया, जबकि डिंपल यादव के खुले सिर पर कटाक्ष करते हुए उनके लिए जिन शब्‍दों का इस्‍तेमाल किया, उन्‍हें कम से कम सार्वजनिक तौर पर कोई भी सभ्‍य इंसान नहीं बोल सकता है। हद है कि मौलाना इसे अब भी सही ठहरा रहे हैं। मौलाना इसे 'मुस्लिम होने की सजा' बता रहे हैं और कह रहे हैं कि कुछ भी अपमानजनक नहीं कहा। उनका मकसद मुस्लिम भावनाओं की रक्षा करना था।

यहां जो सबसे बड़ा प्रश्‍न उभरता है, वह यह कि क्‍या वे भारत को भी शरिया लॉ से चलाना चाहते हैं? वे कि‍स हक से किसी स्‍त्री की गरिमा पर चोट कर सकते हैं? मौलाना रशीदी ने डिंपल यादव के पहनावे पर सवाल उठाते हुए इस हद तक चले गए! सिर और शरीर खुला है...शॉर्ट्स पहनने वाली लड़कियों को देखकर समाज उन्हें ....कहता है! इसी तरह से उनके द्वारा कहा गया, सड़क पर महिलाओं के साथ दुष्कर्म होना कोई बड़ी घटना नहीं है, लेकिन एक महिला को आईना दिखाना इनके लिए बड़ी घटना है। उनका यह बयान अत्यंत घृणित और स्त्री विरोधी है। वास्‍तव में देखा जाए तो उनके इस कथन ने दोहरे विवाद को जन्म दिया है, एक; सार्वजनिक जीवन में कार्यरत महिलाओं की गरिमा पर सीधा आघात और दूसरा; धार्मिक प्रतीकों और अपेक्षाओं को सार्वभौमिक व्यवहार के मानक की तरह प्रस्तुत करने का दुस्साहस है यह।

मौलाना रशीदी पहले भी कई बार ऐसी टिप्पणियाँ कर चुके हैं, जो उनकी इस्‍लामिक कट्टरता को दर्शाती है। इससे पहले 2020 में उन्होंने कहा था, “आज मुसलमान खामोश है। मेरी आने वाली नस्ल… मेरा बेटा, उसका बेटा, उसका पोता…. 50-100 साल के बाद एक हिस्ट्री उनके सामने आएगी कि हमारी मस्जिद को तोड़कर मंदिर बना दिया गया। उस वक्त हो सकता है कि कोई मुस्लिम शासक हो, कोई मुस्लिम जज हो या मुस्लिम शासन आ जाए… कुछ नहीं कहा जा सकता है कि क्या फेरबदल हो जाए… तो क्या उस हिस्ट्री की बुनियाद पर इस मंदिर को तोड़कर मस्जिद नहीं बनाई जाएगी? बिल्कुल बनाई जाएगी।”

फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों द्वारा इस्लामिक कट्टरता के खिलाफ दिए गए बयान पर बोले थे, ऐसे लोगों को जिंदा नहीं छोड़ा जाना चाहिए। तीन तलाक पर, उन्होंने इसे शरीयत का हिस्सा बताते हुए संसद में पारित कानून को इस्लाम विरोधी बताया और यहाँ तक कह दिया था कि कोई कानून शरीयत से ऊपर नहीं हो सकता। वे संविधान से ऊपर शरीयत की बात करते हैं। न्यायपालिका या संसद के फैसलों की अवमानना करते हैं।, हिंसा या उग्र विरोध को वैध ठहराते हैं। निश्‍चित ही ऐसे वक्तव्यों को धार्मिक स्वतंत्रता या अभिव्यक्ति की आज़ादी के दायरे में नहीं रखा जा सकता, क्योंकि ये सीधे सामाजिक सौहार्द को नुकसान पहुँचाने वाले हैं।

कहना होगा कि ऐसे बयान खुले तौर पर न केवल भारत के संवैधानिक भावना के विरुद्ध हैं, बल्कि हिंसा को वैध ठहराने का प्रयास भी हैं। वस्‍तुत: रशीदी की बयानबाजी बार-बार एक ही वैचारिक धारा की पुष्टि करती है, वह धारा जो इस्‍लामिक मजहब की आड़ में लोकतांत्रिक स्वतंत्रता को सीमित करना चाहती है। महिलाओं के वस्त्र, सार्वजनिक जीवन में उनकी भागीदारी और धार्मिक प्रतीकों के आधार पर उनके चरित्र का मूल्यांकन करने की प्रवृत्ति, उनकी गहरी मजहबी सोच को दर्शा रही है। जिसमें वह हर स्‍त्री को भले ही वह उनके विचारों से मेल खाती हो या नहीं, उनके मजहब की हो या नहीं, सभी को एक विशेष लिवाज में ढंकने की उनकी विशेष मजहबी सोच का परिचायक है।

देशभर से इस्‍लामिक कन्‍वर्जन के मामले इन दिनों सामने आ तो रहे ही हैं। किसी का लक्ष्‍य 2030 का है तो किसी का 2047 और किसी का 2050 तक भारत को गजबा-ए-हिंद जिसमें भारत पर इस्‍लाम का शासन और शरिया कानून होगा, बना देने का है। वैसे भी ये मौलाना अपने दिए गए पहले विवादास्‍पद व्‍यक्‍त में अपनी मंशा व्‍यक्‍त कर ही चुके हैं कि कि कोई कानून शरीयत से ऊपर नहीं है। वास्‍तव में यहां मौलाना रशीदी को समझना होगा कि भारत में अभिव्यक्ति की आज़ादी संविधान द्वारा संरक्षित है, लेकिन वह पूर्ण नहीं है। यह अन्य नागरिकों की गरिमा, सामाजिक व्यवस्था और सार्वजनिक शांति की शर्तों पर टिकी है। जब कोई धार्मिक नेता किसी महिला के वस्त्र पर सार्वजनिक रूप से टिप्पणी करता है; वह भी संसद की सदस्य पर, तो यह न केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर हमला है, बल्कि उस लोकतंत्र के चेहरे पर भी एक तमाचा है, जिसकी नींव समानता और गरिमा पर टिकी है, जिसका कि एक सांसद प्रतिनिधित्‍व करता है।

देखा जाए तो मौलाना साजिद रशीदी के कथन पर आज सवाल इसलिए भी उठ रहे हैं, क्‍योंकि मुस्लिम समुदाय के भीतर से भी रशीदी की बयानबाजी के खिलाफ एक संगठित वैचारिक असहमति नहीं दिखती। यह न केवल धार्मिक नेतृत्व की विश्वसनीयता को चोट पहुंचाता है, बल्कि पूरे समुदाय की छवि पर भी असर डालता है। कायदे से अब होना यह चाहिए कि सभी इस्‍लामिक मजहबी समूह मौलाना रशीदी के ऐसे वक्तव्यों की खुली निंदा करें। इससे यह स्पष्ट होगा कि उनके व्‍यक्‍त विचार पूरी कौम का प्रतिनिधित्व नहीं करते।

आज मौलाना साजिद रशीदी जैसे व्यक्तित्व हमें याद दिलाते हैं कि शब्दों का आतंक भी हथियार की तरह घातक हो सकता है। वो शब्‍द ही तो हैं जो भावनाओं को अभिव्‍यक्‍त करते हैं। वे शब्‍द ही तो हैं, जो किसी को भी पानी-पानी कर देते हैं। वे शब्‍द ही तो हैं जो उत्‍साह से भरते और किसी में विद्रोह की आग जला देते हैं और वे शब्‍द ही हैं जो मंत्र बनकर कल्‍याण का मार्ग प्रशस्‍त करते हैं। इसी शब्‍द संरचना में इन मौलाना का कहा वो शब्‍द भी है जिसका कि जिक्र तक सार्वजनिक रूप से नहीं किया जा सकता।

वास्‍तव में ये शब्‍दों की ही ताकत है कि एक शब्‍द बोला कि सामने वाले का सम्‍मान या तिरस्‍कार हो गया। कभी नूपुर शर्मा के एक शब्‍द बोले जाने पर देशभर में नहीं दुनिया के तमाम देशों से आक्रोश व्‍यक्‍त किया गया था जबकि वह तो वही कह रही थीं जोकि संबंधित इस्‍लाम के मजहबी ग्रंथों में लिखा है, लेकिन टीवी डिबेट में उनको किताब में लिखे का जिक्र उनके लिए नहीं पूरे देश के लिए भारी पड़ गया, कुछ लोगों की जान तक ले ली गई। नूपुर शर्मा अब तक उस मामले से बाहर नहीं निकल पाई हैं। एक तरह से कहें तो उनकी राजनीतिक हत्‍या ही कर दी गई है। दूसरी ओर फिर उसी डिबेट में आज एक शब्‍द स्‍त्री की अस्‍मिता को चूर-चूर कर गया है, उसके बाद भी बोलने वाला मौलाना अपने को सही ठहरा रहा है! ऐसे में आवश्‍यक हो गया है कि भारत जैसे विविधतापूर्ण लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को जवाबदेही और संवेदनशीलता के साथ जोड़ा जाए। अन्‍यथा नूपुर शर्मा जैसे लोग किताब का लिखा पढ़कर भी अपमान सहते रहेंगे और मौलाना रशीदी जैसे ऑल इंडिया इमाम एसोसिएशन के अध्यक्ष जैसे महत्‍वपूर्ण पद पर बैठे लोग अभिव्‍यक्‍ति की आड़ में बचते रहेंगे!

---------------

हिन्दुस्थान समाचार / डॉ. मयंक चतुर्वेदी