Enter your Email Address to subscribe to our newsletters
- डॉ. मयंक चतुर्वेदी
बांग्लादेश में एक सरकारी ड्रेस कोड आदेश ने अचानक पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है। यह मामला सिर्फ कपड़ों तक सीमित नहीं रहा, इसने लैंगिक स्वतंत्रता, धार्मिक हस्तक्षेप, सरकारी सख्ती और नागरिक आज़ादी जैसे बड़े मुद्दों को जन्म दे दिया है कि आखिर आनेवाले समय में बांग्लादेश एक लोकतंत्रात्मक देश रहेगा या यहां भी तालिबानी शासन कायम हो जाएगा! इसके साथ ही यहां अभिव्यक्ति पर अंकुश लगा देने के निकाले गए आदेश के बाद लगातार मोहम्मद यूनुस सरकार की आलोचना हो रही है।
दरअसल, हाल ही में बांग्लादेश के केंद्रीय बैंक द्वारा जारी किया गया एक सर्कुलर ऐसा लग रहा था जैसे यह किसी धार्मिक संस्थान की आचार-संहिता हो। इसमें महिला कर्मचारियों को स्लीवलेस, टाइट कपड़े, लेगिंग्स और छोटे वस्त्र पहनने पर सख्त पाबंदी लगा दी गई थी। केवल साड़ी या सलवार-कमीज़ (दुपट्टा या हिजाब के साथ) की ऑफिस में महिलाओं को आने की अनुमति दी गई थी। पुरुषों के लिए जींस पहनकर आने पर रोक लगा दी गई। उनके लिए फॉर्मल शर्ट-पैंट अनिवार्य कर दिया गया। सर्कुलर में यह भी उल्लेख था कि आदेश न मानने पर अनुशासनात्मक कार्रवाई होगी और इसके पालन हेतु विभागीय मॉनिटरिंग भी की जाएगी।
ड्रेस कोड आते ही सोशल मीडिया पर बवाल मच गया। लोगों ने सवाल उठाया कि शालीन और पेशेवर कपड़े की परिभाषा तय करने का अधिकार सरकार को किसने दिया? एक यूज़र ने तीखा तंज कसते हुए लिखा: “कहीं ये अफगानिस्तान तो नहीं बनता जा रहा? ये कैसा नया तालिबानी युग है?” बैंक गवर्नर की बेटी की खुले पहनावे वाली तस्वीरें भी वायरल होने लगीं, जिससे दोहरे मापदंड का आरोप सामने आया। वहीं, बांग्लादेश महिला परिषद, मानवाधिकार संगठन और अनेक शिक्षाविदों ने इस आदेश की तीखी आलोचना शुरू कर दी। महिला परिषद की अध्यक्ष फौजिया मुस्लिम ने कहा कि “यह आदेश न सिर्फ महिलाओं की पसंद पर हमला है, बल्कि एक खास मजहबी एजेंडे को थोपने की कोशिश है।”
आखिर सोशल मीडिया पर भारी विरोध और गवर्नर डॉ. अहसान एच. मंसूर की नाराजगी के बाद बैंक ने यह आदेश वापस ले लिया। प्रवक्ता आरिफ हुसैन ने इसे “सिर्फ एक सलाह” करार दिया और कहा कि यह आधिकारिक नीति नहीं थी। अब पूछने वाले यहां अपनी सरकार से प्रश्न कर रहे हैं कि अगर यह सलाह थी, तो इसे विभागीय अनुशासन से क्यों जोड़ा गया? और फिर वापस लेने में इतना समय क्यों लेना पड़ा?
इस विवाद के ठीक बाद एक और फैसला सामने आया है, एक संशोधित अध्यादेश, जिसके तहत अब सरकारी कर्मचारी सरकार के खिलाफ प्रदर्शन नहीं कर सकते। आज्ञा उल्लंघन जैसे शब्दों की जगह अब सार्वजनिक कर्तव्यों में बाधा डालने वाला दुर्व्यवहार जोड़ा गया है, जिसका अर्थ व्यापक और खतरनाक माना जा रहा है। बांग्लादेश का अब नया कानून कहता है कि ऐसे मामलों में न तो कोई अपील होगी और न ही सुनवाई। कर्मचारी को नौकरी से निकाला जा सकता है या पदावनत किया जाएगा।
इस आदेश के साथ ही ध्यान गया उन संगठनों और नेताओं की ओर जो पिछले कुछ वर्षों से बांग्लादेश में शरिया कानून लागू करने की मांग कर रहे हैं। इनमें सबसे मुखर संगठन हैं, जमात-ए-इस्लामी जोकि बांग्लादेश की एक इस्लामी राजनीतिक पार्टी है। यह लंबे समय से देश के संविधान को इस्लामी रंग देने की मांग कर रही है। यह संगठन 1971 के युद्ध अपराधों में शामिल रहा है और बार-बार मजहब इस्लाम के नाम पर कानूनों में बदलाव की मांग करता रहा है।
इसी तरह से हिफाज़त-ए-इस्लाम एक कट्टरपंथी मदरसा आधारित संगठन हाल के वर्षों में महिलाओं के पहनावे, मूर्तियों और शिक्षा व्यवस्था के खिलाफ यहां उग्र प्रदर्शन कर रहा है। हिफाज़त की मांग है कि “नैतिक पतन” रोकने के लिए महिलाओं को इस्लामी परिधान अनिवार्य किया जाए। इसके अलावा जमात-चार मोनई आज बांग्लादेश में एक ऐसे संगठन के रूप में सामने आया है जो खुलकर बांग्लादेश को “शरीया-आधारित इस्लामी राष्ट्र” बनाने की बात करता है। मई 2025 में इस संगठन ने ढाका विश्वविद्यालय के पास एक रैली की थी, जिसमें हजारों कार्यकर्ता शामिल हुए थे।
इस संगठन ने विश्वविद्यालय के उन शिक्षकों के खिलाफ भी विरोध किया जो विचारधारा से आधुनिक हैं। जबकि इससे पहले शेख हसीना सरकार ने कट्टर इस्लामी संगठन जमात-ए-इस्लामी और उससे जुड़े छात्र संगठन शिबिर के खिलाफ कठोर कार्रवाई की थी। इसके कई नेताओं को 1971 के युद्ध अपराधों के लिए सजा हुई। यहां 1971 की मुक्ति संग्राम के दौरान हुए अपराधों के लिए एक अंतरराष्ट्रीय युद्ध अपराध ट्रिब्यूनल बनाया गया। इसमें कई कट्टरपंथी नेताओं को फांसी की सजा तक दी गई, जिससे कट्टर ताकतों को बड़ा झटका लगा था । जब 2016 में ढाका पर आतंकी हमला हुआ तो इसके बाद सरकार ने कट्टरपंथ के खिलाफ एक बड़ी मुहिम शुरू की। कई मदरसों की निगरानी बढ़ाई गई, सैकड़ों संदिग्धों की गिरफ्तारी हुई, और आतंकवादी ठिकानों पर छापे मारे गए। सोशल मीडिया और यूट्यूब जैसे प्लेटफॉर्म्स पर कट्टरपंथी सामग्री फैलाने वालों पर नज़र रखी गई। आईसीटी कानूनों का सहारा लेकर डिजिटल निगरानी भी बढ़ाई गई थी।
शेख हसीना के कार्यकाल की विशेषता यह थी कि बांग्लादेश की छवि मॉडरेट मुस्लिम डेमोक्रेसी की तरह थी, जहां इस्लाम धर्म है, लेकिन शासन कानून आधारित है, न कि शरीया आधारित। लेकिन अब मोहम्मद यूनुस के शासनकाल में यहां का माहौल पूरा बदला हुआ नजर आ रहा है। आज यहां कट्टरपंथी संगठनों के नाम और उनके घोषित इरादों से स्पष्ट है कि अब यह केवल वैचारिक बहस नहीं, बल्कि एक रणनीतिक संयुक्त सभी कट्टर जिहादी संगठनों का सामाजिक अभियान बन चुका है। अब यह देखना बाकी है कि क्या बांग्लादेश की जनता और सरकार इस चुनौती का सामना मजबूती से कर पाएगी, या एक और लोकतांत्रिक देश धीरे-धीरे शरिया के शिकंजे में आ जाएगा।
भारत के पड़ोसी देश बांग्लादेश में घट रहीं ये घटनाएं यहां के एक बड़े सामाजिक और वैचारिक बदलाव की ओर इशारा कर रही हैं। जहां सरकारी तंत्र रीलिजन, संस्कृति और सत्ता के एक त्रिकोण में सिमटता नजर आ रहा है जिसके चलते यहां हर रोज व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के प्रयास हो रहे हैं। यहां के अधिकांश लोग डरे हुए हैं, वे आपस में पूछ रहे हैं कि क्या बांग्लादेश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आनेवाले दिनों में पूरी तरह समाप्त हो जाएगी? क्या बांग्लादेश भी इस्लामिक जिहादी शरिया कानून लागू करनेवाले देश के रूप में बदल जाएगा?
---------------
हिन्दुस्थान समाचार / डॉ. मयंक चतुर्वेदी