नई दिल्ली, 25 जुलाई (हि.स.)। भगवान शिव की साधना का प्रमुख और पवित्र पर्व श्रावण मास है। भगवान शिव पर जलाभिषेक और कांवड़ यात्रा के जरिए हर वर्ष करोड़ों श्रद्धालु अपनी भक्ति भावना का प्रदर्शन करते हैं। विद्वानों का मानना है कि खुद के अंदर 'शिवत्व' को जाग्रत करना ही भोलेनाथ की सच्ची पूजा-अर्चना है।
सनातन में कांवड़ से जलाभिषेक की परंपरा बहुत ही पुरातन है। इसका पुराणों में भी उल्लेख मिलता है, लेकिन कांवड़ यात्रा का जिक्र किसी भी पौराणिक ग्रंथ में सीधे तौर पर नहीं मिलता है। इस तरह के संकेत पुराणों में अवश्य मिलते हैं, जिनसे यह पता चलता है कि कांवड़ यानी पात्रों में गंगाजल लेकर भगवान शिव पर जलाभिषेक की परंपरा बहुत ही पुरातन काल से है, जिसे सनातनी अपने शिव तप के रूप में मानता है। इससे उसे शिव पूजा के रूप में प्रभावपूर्ण ऊर्जा की प्राप्ति होती है:-
'गंगातोयं शिवपूजने विनियोज्यं, कांवड़धरो याति शंभुना साकम्।'
अर्थात- गंगाजल शिव की पूजा के लिए अर्पित करना चाहिए। कांवड़-धर्म करने वाला भक्त शंभू (शिव) के साथ मिलकर यात्रा करता है। यानी जो व्यक्ति शिव की पूजा के लिए गंगाजल अर्पित करता है और कांवड़ धारण करता है, वह शिव के साथ जुड़कर यात्रा करता है।
पुराणों के अनुसार, समुद्र मंथन से निकले विष को पी लेने के कारण भगवान शिव का कंठ नीला हो गया था और वह 'नीलकंठ' कहलाए। इस विष के प्रभाव को खत्म करने के लिए लंका नरेश रावण ने कांवड़ में गंगाजल लेकर बागपत स्थित पुरा महादेव में भगवान शिव का जलाभिषेक किया था। सबसे पहले यहां से कांवड़ यात्रा की परंपरा की शुरूआत मानी जाती है। वहीं कुछ लोगों के अनुसार विष के प्रभाव को दूर करने के लिए देवताओं ने सावन में शिव पर मां गंगा का जल चढ़ाया था और तब से कांवड़ यात्रा का प्रारंभ हुआ।
कांवड़ में जल भरकर सबसे पहले जलाभिषेक करने के बारे में एक मान्यता के अनुसार प्रभु श्रीराम ने शिव का जलाभिषेक किया था। ऐसी कथा मिलती है कि भगवान श्रीराम ने बिहार के सुलतानगंज से कांवड़ में गंगाजल भरकर बाबा धाम में शिवलिंग पर जलाभिषेक किया था। ऐसी भी मान्यता है कि सबसे पहले भगवान परशुराम ने बागपत के पास स्थित पुरामहादेव मंदिर में कांवड़ में गंगाजल लेकर शिव का जलाभिषेक किया था। जलाभिषेक करने के लिए भगवान परशुराम गढ़मुक्तेश्वर से गंगाजल लेकर आए थे।
कांवड़ यात्रा का इतिहास-
पुराणों में कांवड़ यात्रा का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है, लेकिन हमारे यहां वैदिक युग में जल से यज्ञ और शिव पूजन की परंपरा रही है। इस काल में पवित्र जल से देवताओं का अभिषेक किया जाता था। गंगा जल, यमुना जल और नर्मदा जल का विशेष महत्व था। यज्ञ मंडप और शिवलिंग पर जल चढ़ाना तपस्या का अंग माना जाता था। रामायण में कांवड़ परंपरा के संकेत मिलते हैं। ऐसी मान्यता है कि भगवान श्रीराम ने श्रवण मास में कांवड़ उठाकर शिवलिंग का जलाभिषेक किया था।
दक्षिण भारत की परंपराओं में तमिल में इसे 'कंधाकोट्टम' कहा गया है। इसका अर्थ है, कंधे पर रखा जाने वाला पात्र या बर्तन, जो अक्सर कांवड़ यात्रा में प्रयोग होता है। इसमें शिव भक्त दो कलशों में जल लेकर पदयात्रा करते हैं। महाभारत (वनपर्व) में अर्जुन ने गुप्त साधना कर भगवान शिव को प्रसन्न कर एक पवित्र जलाशय से शिवलिंग पर जल चढ़ाया था। यह कांवड़ यात्रा मानी जाती है। शिव महापुराण में जलाभिषेक को सर्वश्रेष्ठ उपासना कहा गया है। स्कंद पुराण के केदारखंड में हरिद्वार और बैजनाथ धाम को जोड़ने वाली जलयात्रा का विशेष उल्लेख है। आधुनिक युग में यह विश्व की सबसे बड़ी पदयात्रा बन गयी है। इस कालखंड की कई प्रमुख विशेषताएं हैं। 19वीं सदी में अंग्रेजों ने हरिद्वार से गंगाजल लाकर शिवालयों में चढ़ाने वाले कांवड़ियों का वर्णन किया है।
यह कांवड़ शब्द मराठी के 'कांबट से निकला भी बताया जाता है। इसमें एक चांस की कमटी के दो सिरों पर जलपात्र लगाकर कांवड़ तैयार की जाती है। इसके बाद उनमें पवित्र नदियों से जल भरकर देवों के देव महादेव पर अर्पित करते हैं। संस्कृत में कांवड़ को 'कण्डोल' या 'कण्डोलिका' कहा जाता है। यह योग की प्रतीकात्मक यात्रा भी है, जहां बाएं और दाएं जलपात्र इड़ा व पिंगला नाड़ी और लाठी सुषुम्ना मानी जाती है। इस दृष्टि से यह यात्रा केवल बाहरी नहीं, आंतरिक शुद्धि की प्रक्रिया भी होती है। शिवलिंग पर गंगाजल अर्पित करने वाला शिवलोक को प्राप्त होता है। गंगाजल को तीनों लोकों को पवित्र करने वाला माना गया है। शिव ने ही गंगा को जटाओं में धारण किया था। इसलिए गंगाजल शिव को समर्पित करना उनकी कृपा का मार्ग माना जाता है। शिव पुराण के एक श्लोक के अनुसार-
गंगाजलेन स्नानितं, यः शिवं पूजयति श्रद्धा।
स याति परमं पदं, यत्र वै शंकरो स्वयम्।
अर्थात- जो व्यक्ति गंगा जल से स्नान करके श्रद्धा से शिवजी की पूजा करता है, वह परम पद पर पहुंचता है, जहां शिवजी स्वयं विराजते हैं।
वरिष्ठ साहित्यकार एवं लेखक कृष्णानंद सागर का कहना है कि 'शिवं भूत्वा शिवं यजेत्' यानी शिव की पूजा, शिव बनकर की जानी चाहिए। जब शिव बनोगे यानी उन्हें अपने अंदर साकार करते हुए पूजा करोगे तो ही उनकी कृपा प्राप्त होगी। उनका कहना है कि पूजा का अर्थ सिर्फ घंटा-घड़ियाल और धूप-अगरबत्ती नहीं है, बल्कि ये सब पूजा करने के सहायक उपकरण हैं। असली पूजा तो शिव बनने में है।
हिन्दुस्थान समाचार / रामानुज शर्मा