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- डॉ. मयंक चतुर्वेदी
सत्य घटना पर आधारित फिल्म 'उदयपुर फाइल्स' अपने प्रसारण के लिए संघर्ष करती दिख रही है। सभी के सामने है, केस- मोहम्मद जावेद बनाम यूओआई और जानी फ़ायरफ़ॉक्स मीडिया बनाम मौलाना अरशद मदनी, जिसकी सुनवाई 24 जुलाई, 2025 को भी जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की बेंच में हुई। जिन्हें इस फिल्म से परेशानी है, वे सांप्रदायिकता का आधार लेकर यही चाहते हैं कि ये फिल्म कभी प्रदर्शित ही न हो। इस फिल्म के प्रदर्शन को रोकने के लिए बड़े-बड़े वकील लगे हुए हैं। ये लोग सर्वोच्च न्यायालय में फिल्म को ‘भड़काने वाला’ बता रहे हैं।
कभी-कभी अभिव्यक्ति की बात करने वालों, उसके नाम पर प्रदर्शन करेनवालों और कोर्ट में इस फिल्म के प्रदर्शन को रोकने के लिए जो केस लड़ रहे हैं, उनकी सोच पर आश्चर्य होता है। क्या अभिव्यक्ति का अर्थ सिर्फ भारत में बहुसंख्यक हिन्दू समाज पर ही लागू है? जब हम सेक्युलर शब्द का इस्तेमाल अपने देश के लिए करते हैं, तो यह सेकुलरिज्म को बनाए रखने की जिम्मेदारी सिर्फ इस देश के हिन्दू समाज के ऊपर ही है?
इस प्रकरण में जब राष्ट्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड ने इसके प्रदर्शन को लेकर अपनी सहमति दे दी। विवाद से जुड़े सभी दृश्य हटा दिए गए। तब फिर क्यों सर्वोच्च न्यायालय में यह सिद्ध करने का प्रयास हो रहा है कि यह फिल्म दिखाई ही नहीं जानी चाहिए। इससे (हिन्दू-मुस्लिम) सांप्रदायिक तनाव होने का खतरा है। क्या इस सच को झुठलाया जा सकता है कि 28 जून, 2022 को उदयपुर में दर्जी कन्हैयालाल तेली की हत्या दो जिहादियों-रियाज अत्तारी और गौस मोहम्मद ने धारदार हथियार से गला काटकर कर दी थी! एक अन्य जिहादी ने तो हत्या का वीडियो बनाकर सोशल मीडिया तक में साझा किया था। आरोपियों ने दावा किया कि यह कृत्य पूर्व भाजपा नेता नूपुर शर्मा के समर्थन में कन्हैयालाल द्वारा सोशल मीडिया पर की गई एक पोस्ट का बदला लेने के लिए किया गया है। इस हत्याकांड के बाद पूरी दुनिया में बर्बर जिहादी सोच पर चिंता जताई गई थी।
देखा जाए तो इसी जिहादी सोच के प्रति जागरुक करने के लिए फिल्म ‘उदयपुर फाइल्स’ लोगों के सामने प्रस्तुत करने का प्रयास फिल्म निर्देशक भरत एस. श्रीनेत के द्वारा किया गया। फिर भी यह समझ से परे है कि आखिर मोहम्मद जावेद और मौलाना अरशद मदनी एवं कुछ अन्य इस फिल्म को क्यों नहीं प्रदर्शित होने देना चाहते? जबकि सर्वोच्च न्यायालय में सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता द्वारा बताया गया है कि फिल्म 'उदयपुर फाइल्स' में 55 कट लगाए गए हैं। भड़काऊ सामग्री हटाई गई है। डिस्क्लेमर जोड़े गए हैं; फिल्म की कहानी पूरी तरह से संतुलित है।
न्यायालय को राष्ट्रीय फिल्म प्रमाणन मानदंडों द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया के बारे में विस्तार से जानकारी दी गई है, यहां तक कि विदेश मंत्रालय तक से भी इस फिल्म पर परामर्श किया गया है। फिल्म से 13 मिनट का फुटेज काट दिया गया है। पूरी फ़िल्म में सामान्य भाषा का इस्तेमाल किया गया है। सुनवाई के दौरान, निर्माताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता गौरव भाटिया ने भी इसी तरह की अपनी जानकारी से कोर्ट को अवगत कराया। फिल्म के प्रसारण के पूर्व जो छह प्रमुख बदलाव लागू करने का निर्देश दिया गया था, वे सभी हो चुके हैं। फिर इतने अधिक परिवर्तन करने के बाद भी कोर्ट में मोहम्मद जावेद और मौलाना अरशद मदनी की ओर से खड़े वकील फिल्म 'उदयपुर फाइल्स' को सिनेमा घरों में प्रदर्शित होने देना नहीं चाहते!
इस फिल्म रिलीज का विरोध करते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल (जमीयत उलेमा-ए-हिंद की ओर से) और मेनका गुरुस्वामी (आरोपी मोहम्मद जावेद की ओर से) का तर्क कि फिल्म आरोपपत्र की नकल करती है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काती है- वास्तव में समझ से परे है। ऐसा इसलिए है क्योंकि फिल्म समाज के जागरण के लिए है। आज इस बात की सबसे ज्यादा जरूरत है कि जो लोग न्यायालय में इस फिल्म के विरोध में खड़े हैं, वे कन्हैयालाल के परिवार के दर्द को भी समझें।
तीन साल से इस केस में किसी भी अपराधी को सजा नहीं मिली
बेटे यश का दर्द भी यही है, ‘फिल्म के खिलाफ जो याचिका लगी है, वह शायद तीन या चार दिन पहले लगी थी। लेकिन एक याचिका जो उसने अपने पिताजी के साथ हुई बर्बर घटना के समय आज से करीब तीन साल पहले लगाई थी, उस केस का अबतक कोई निष्कर्ष नहीं निकला। आज तक वह केस जैसे का तैसा ही है। उस केस में डेढ़ सौ से अधिक गवाह थे, जिसमें शायद 15 या 16 की पेशियां भी नहीं हुईं। न उसमें फास्ट ट्रैक लगा। सबूत वगैरह सब कुछ होने के बावजूद तीन साल से इस केस में किसी भी अपराधी को सजा नहीं मिली।’
यश कहते हैं, ‘जब कोई फिल्म के जरिए देश को हकीकत दिखाना चाहता है, तो इसके लिए पूरा सिस्टम खड़ा हो जाता है। जमीयत उलेमा-ए-हिंद, मौलाना मदनी आ जाते हैं कि नहीं; इस फिल्म पर रोक लगनी चाहिए। और सिर्फ तीन दिन के अंदर हमें पता चल रहा है कि फिल्म पर रोक भी लग गई। वहीं जब किसी केस में अपराधियों को सजा देनी होती है, तो वह नहीं हो रही है। यह गंभीरता से सोचने वाली बात है। ’
विश्व हिन्दू परिषद के राष्ट्रीय प्रवक्ता विनोद बंसल कहते हैं, “उदयपुर में कन्हैयालाल के हत्यारों के विरुद्ध एनआईए ने छह माह में ही चार्जशीट दाखिल कर दी थी। किंतु, दुर्भाग्य से मानवता के उन शत्रुओं को तीन वर्षों में भी फांसी नहीं दी जा सकी। दूसरी ओर फिल्म ‘उदयपुर फाइल्स’ पर मात्र तीन घंटे में, बिना फिल्म देखे, उच्च न्यायालय का स्थगन आदेश आना तथा उस ऑर्डर की कॉपी, सम्बंधित पक्षकारों को 21 घंटे बाद तक भी न मिल पाना, बहुत कुछ कहता है? उस फिल्म में आखिर गलत क्या है? क्या हत्या नहीं हुई?”
ये फिल्म सही अर्थों में भारत के आमजन को जगाने वाली एवं तमाम विषयों पर गहराई से सोचने एवं उस पर विमर्श खड़ा करने का सामर्थ्य रखती है। अच्छा हो कि जो आज इस फिल्म के प्रसारण को रोकने के लिए सक्रिय हैं, वे भी भारत की लोकतांत्रिक संवेदना के सशक्तिकरण के लिए आगे आएं और फिल्म के प्रसारण का समर्थन कर इसे अतिशीघ्र सिनेमाघरों में प्रदर्शित करवाने में अपना सहयोग प्रदान करें।
(लेखक फिल्म सेंसर बोर्ड एडवाइजरी कमेटी के पूर्व सदस्य एवं पत्रकार हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / डॉ. मयंक चतुर्वेदी