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डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
बचपन हर गम से बेगाना होता है...। यह 1975 की फिल्म 'गीत गाता चल' का किशोर कुमार का गया गीत है। इस दौर के गीत को हम सबने कभी न कभी जरूर सुना होगा। और कभी न कभी दादी के घर से मामा के घर जाने पर वहां भी नानी से लोरियां और कहानियां सुनी होंगी। अब दादी-नानी की कहानियां बीते जमाने की बात हो गई हैं। इन कहानियों और लोरियों के सकारात्मक संदेश सुनकर पली-बढ़ी पीढ़ी आज का मौजूदा परिदृश्य देखकर हैरान है। अब के बच्चे इस सामाजिक दायरे से कट चुके हैं।
वैश्विक अध्ययनों से यह साफ हो गया है कि इसके नकारात्मक परिणाम सामने आने लगे हैं। 1996 से 2010 की पीढ़ी इस तथ्य को अभी समझ नहीं पा रही है पर इन अध्ययनों ने साफ कर दिया है कि हालात यही रहे तो आने वाली पीढ़ी से संवेदनशीलता और अच्छे-बुरे की बात करने का कोई मायने नहीं रख जाएगा।
दरअसल आज के बच्चों की दुनिया में मोबाइल फोन गहरे तक घर कर चुका है। टीवी स्क्रीन पर खुराफाती, हिंसात्मक, नकारात्मक और दुश्चक्र रचते धारावाहिक उनके दिल और दिमाग को मथ रहे हैं। इसका नतीजा है कि बच्चों में हिंसा, बदले की भावना और ईर्ष्या की भावना पनप रही है। उन्हें बंद कमरों में अकेला रहना रास आने लगा है। मोबाइल में आत्मघाती गेम्स खेलना शगल बन चुका है। इस परिदृश्य से कभी-कभी रिश्ते भी तार-तार होने लगे हैं। अपने में सिमटती इस पीढ़ी से देश और समाज को सकारात्मकता दे पाने की उम्मीद बेमानी लगने लगी है।
दरअसल दादी-नानी की कहानियां भले ही कपोल कल्पित होती थीं पर वह कोमल मन को सकारात्मक संदेश देती थीं। बच्चों में पढ़ने-पढ़ाने की आदत डाली जाती थी। पुस्तकालय में जाकर बच्चे ज्ञान अर्जित करते थे। आज पुस्तकालय का अर्थ किराये के स्थान पर बना केबिननुमा दड़बा हो गया है। किताबें भी ऐसी होती हैं कि वह रास नहीं आतीं। एक जमाने में ज्ञानवर्द्धक पुस्तकें, समाचार पत्र-पत्रिकाएं आदि होते थे।
अब पढ़ने-पढ़ाने की आदत ही समाप्त होती जा रही है। एक समय था जब वार्षिक परीक्षाओं के बाद बारी-बारी से दादी-नानी के घर घमाचौकड़ी होती थी। मजे की बात यह कि सभी मिजाज के हम-उम्र बच्चे होने से आपसी तालमेल की शिक्षा भी मिल जाती थी। फिर रात को दादी-नानी के साथ सोने और सोने से पहले कहानियां सुनने का सिलसिला चलता था। चंदा मामा, चंपक सहित बहुत सी बच्चों की पत्रिकाएं घर में होना और बच्चों के पास होना गौरव की बात माना जाता था। खैर यह बीते जमाने की बात हो गई है। अब तो गूगल गुरु ने लगभग सभी को इससे दूर कर दिया है।
डिजिटल युग के इस दौर में सोशल मीडिया के माध्यम समूचे समाज को बुरी तरह से प्रभावित कर रहे हैं। शहरीकरण के साथ ही संयुक्त परिवार का स्थान एकल परिवार ने ले लिया है। बच्चों को प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी में ही जुटा देने और होमवर्क और ट्यूशन कल्चर ने पढ़ाई की दशा और दिशा को ही बदल दिया है। कोरोना के बाद तो बच्चे पढ़ने के लिए मोबाइल के दास हो गए। अब तो स्कूलों में भी सभी संदेश मोबाइल पर ही देने का चलन चल गया है और इससे स्कूल की डायरी का भी कोई महत्व नहीं रह गया है।
ऐसे में मोबाइल ही सबका माध्यम बन गया है। एक समय था जब बच्चों को कोर्स में पढ़ाई जाने वाली पुस्तकों के इतर मानसिक और चारित्रिक विकास वाले साहित्य को पढ़ने के लिए प्रेरित किया जाता था। आज पंचतंत्र, हितोपदेश की कहानियां यह पीड़ी नहीं जानती। सोशल मीडिया, आभासी दुनिया, एकल और प्रतिस्पर्धात्मक पारिवारिक स्थिति ने बालपन से उनका बचपन छीन लिया है। अवकाश के दिनों में दादा-दादी या नाना नानी के घर जाने का रिवाज बंद हो गया। अब लोग उन्हें पिकनिक या पर्यटन स्थल पर ले जाते हैं। इसलिए सोच में बदलाव की आवश्यकता है।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / मुकुंद