अंतरिक्ष में भारत के आत्मनिर्भरता की नई परिभाषा
डॉ.सत्यवान सौरभ मानव इतिहास की परिधि पर जब भी कोई नया चक्र उभरता है, तो उसमें विज्ञान, कल्पना और आत्मबल की त्रयी सबसे महत्वपूर्ण होती है। भारत की अंतरिक्ष यात्रा, जो एक समय टिन के डब्बों में साइकिलों पर रॉकेट लेकर चलने से शुरू हुई थी, आज न केवल चंद्
डॉ.सत्यवान सौरभ


डॉ.सत्यवान सौरभ

मानव इतिहास की परिधि पर जब भी कोई नया चक्र उभरता है, तो उसमें विज्ञान, कल्पना और आत्मबल की त्रयी सबसे महत्वपूर्ण होती है। भारत की अंतरिक्ष यात्रा, जो एक समय टिन के डब्बों में साइकिलों पर रॉकेट लेकर चलने से शुरू हुई थी, आज न केवल चंद्रमा और मंगल की मिट्टी तक पहुंच चुकी है, बल्कि मानव संसाधन के नए क्षितिज भी गढ़ रही है। हाल ही में संपन्न हुई भारतीय मूल की गगनयात्री सुनीता विलियम्स की ऐतिहासिक वापसी, न केवल अमेरिका की सफलता है, बल्कि भारत के अंतरिक्ष स्वप्नों को भी नए पंख दे गई है। उनके साहस ने भारत की आधी आबादी-नारी शक्ति-को यह संदेश दिया है कि अब अंतरिक्ष केवल विज्ञान का विषय नहीं, बल्कि आत्मबल, समानता और नवाचार का प्रतीक बन चुका है। और अब अंतरिक्ष यात्री शुभांशु शुक्ला 18 दिनों के अंतरिक्ष प्रवास के बाद पृथ्वी पर लौट चुके हैं। वह अपने साथ सिर्फ वैज्ञानिक आंकड़े और बीज के नमूने ही नहीं बल्कि साहस, सपनों और भारत की बढ़ती अंतरिक्ष महत्वाकांक्षाओं की कहानी भी लेकर आए हैं।

भारत के लिए अंतरिक्ष कार्यक्रम कोई दिखावा नहीं, बल्कि जमीनी जरूरतों का समाधान है। ग्रामीण क्षेत्रों में मौसम की सटीक जानकारी, किसानों के लिए फसल पूर्वानुमान, आपदा प्रबंधन, संचार और शिक्षा के लिए सस्ती सेवाएं—ये सब हमारे उपग्रहों की देन हैं। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन की सफलता सिर्फ रॉकेट प्रक्षेपणों की संख्या में नहीं, बल्कि उनकी गुणवत्ता, सटीकता और न्यूनतम लागत में छुपी हुई है। यही कारण है कि दुनिया के बड़े राष्ट्र भी आज अपने उपग्रह प्रक्षेपण के लिए भारत का रुख कर रहे हैं।

चंद्रयान-3 की सफल लैंडिंग और आगामी गगनयान मिशन भारत को उस गुट में खड़ा कर रहे हैं, जहां सिर्फ चंद विकसित देश अब तक मौजूद थे। गगनयान मिशन, जिसमें भारतीय अंतरिक्ष यात्रियों को स्वदेशी यान में अंतरिक्ष में भेजा जाएगा, सिर्फ विज्ञान नहीं बल्कि भारतीय आत्मगौरव की पुनर्प्रतिष्ठा का प्रतीक होगा। इस यात्रा का सबसे रोचक पहलू यह है कि इसमें अब केवल वैज्ञानिक ही नहीं, आम भारतीय युवाओं के लिए भी संभावनाओं के नए द्वार खुल रहे हैं। इसरो, रक्षा अनुसंधान संगठन और निजी क्षेत्र के सहयोग से भारत एक ऐसा पारिस्थितिकी तंत्र विकसित कर रहा है जहां विज्ञान, नवाचार, रोजगार और उद्यमिता एक साथ फल-फूल सकते हैं।

सुनीता विलियम्स, कल्पना चावला, और अब भारत की युवा वैज्ञानिक-ये सब उदाहरण हैं उस शक्ति के जो अंतरिक्ष में भी सीमित नहीं है। आज देश की बेटियां रोवर बना रही हैं, सॉफ्टवेयर कोड लिख रही हैं, रॉकेट डिजाइन कर रही हैं। भारतीय अंतरिक्ष केंद्रों में महिला वैज्ञानिकों की सक्रिय भागीदारी इस मिथक को तोड़ती है कि विज्ञान केवल पुरुषों का क्षेत्र है। यह केवल लैंगिक समानता की बात नहीं, यह सामाजिक न्याय और राष्ट्र निर्माण की नींव है। जब एक लड़की अंतरिक्ष में जाती है, तो पूरे समाज का सोचने का तरीका बदलता है।

देश के नवोदय विद्यालयों, केंद्रीय विद्यालयों, सरकारी स्कूलों, और ग्रामीण अंचलों से आने वाले छात्र-छात्राएं अब स्पेस क्लब का हिस्सा हैं। नन्हे वैज्ञानिक अब मोबाइल एप्लिकेशन से रॉकेट लॉन्च की प्रक्रिया को समझ रहे हैं, और निजी स्टार्टअप्स जैसे अग्निकुल, 'स्काईरूट', और पिक्सेल अंतरिक्ष आधारित स्टार्टअप संस्कृति को जन्म दे रहे हैं। यह परिवर्तन केवल पढ़ाई या परीक्षा तक सीमित नहीं है, बल्कि रोजगार सृजन, नवाचार, और आर्थिक आत्मनिर्भरता की नींव भी है। अंतरिक्ष क्षेत्र में आत्मनिर्भर भारत का सपना अब सिर्फ सपना नहीं, योजनाबद्ध यथार्थ बनता जा रहा है। भारत में 2021 में स्थापित हुए अंतरिक्ष स्टार्टअप की संख्या 30 से बढ़कर 2025 में 190 से अधिक हो चुकी है। इस वृद्धि के पीछे न केवल सरकारी नीतियां हैं, बल्कि वह युवा ऊर्जा भी है जो रिस्क लेने को तैयार है। अब भारतीय युवा सिर्फ सरकारी नौकरी की तरफ नहीं देख रहा, वह अब सोचता है कि वह क्यों न खुद एक उपग्रह विकसित करे? क्यों न वह लॉन्च सर्विस उपलब्ध कराए? क्यों न वह अंतरिक्ष कचरे की सफाई पर स्टार्टअप शुरू करे? यह वही नया भारत है, जो न केवल ख्वाब देखता है, बल्कि उन्हें साकार भी करता है।

भारत अब अंतरिक्ष विज्ञान में केवल एक अनुसरणकर्ता नहीं, एक पथप्रदर्शक बनता जा रहा है। अफ्रीका, एशिया और दक्षिण अमेरिका के कई देश भारत से सहयोग की उम्मीद कर रहे हैं। भारत के सार्क सैटेलाइट का निर्माण यह दर्शाता है कि वह विज्ञान को केवल राष्ट्रहित में नहीं, विश्वहित में भी प्रयोग करना चाहता है। भारत की वसुधैव कुटुम्बकम की भावना अब पृथ्वी तक सीमित नहीं रही, बल्कि वह ब्रह्मांड तक विस्तार पा रही है।

हालांकि यह भी आवश्यक है कि अंतरिक्ष विज्ञान के इस उत्साह को तर्क और जिम्मेदारी के साथ देखा जाए। विज्ञान का उपयोग यदि केवल आत्मप्रशंसा या राजनीतिक प्रचार के लिए हो, तो वह अपने मूल उद्देश्य से भटक सकता है। हमें यह ध्यान रखना होगा कि अंतरिक्ष विज्ञान केवल चंद्रमा पर तिरंगा फहराने का उपक्रम नहीं, बल्कि गांव-गांव में शिक्षा, स्वास्थ्य, संचार और आपदा राहत पहुंचाने का भी माध्यम है। सच्चा राष्ट्रवाद वही है जो विज्ञान को लोकमंगल से जोड़ता है, न कि केवल मीडिया तमाशा बनाता है।

भारत की अंतरिक्ष यात्रा केवल रॉकेटों की गिनती नहीं है। यह देश की चेतना, आत्मबल, नवाचार, और युवाशक्ति की उड़ान है। जब कोई बच्चा गांव की मिट्टी से उठकर अंतरिक्ष वैज्ञानिक बनने का सपना देखता है, जब कोई युवती कहती है कि वह सुनीता विलियम्स या कल्पना चावला बनना चाहती है, और जब कोई शिक्षक अपने छात्रों को ब्रह्मांड के रहस्यों से अवगत कराता है, तब समझिए कि भारत सचमुच उड़ रहा है। और यह उड़ान, केवल आकाश की ओर नहीं, एक समावेशी, स्वावलंबी और वैज्ञानिक समाज की ओर है। इसलिए, आइए हम विज्ञान को केवल प्रयोगशालाओं में सीमित न करें, उसे घर-घर तक पहुंचाएं। विज्ञान का दीपक केवल रॉकेट नहीं बनाता, वह आशा, समानता और आत्मनिर्भरता की लौ भी जलाता है। अंतरिक्ष में भारत की यह यात्रा यहीं नहीं थमेगी। यह हर उस हृदय की धड़कन बनेगी, जो सोचता है, जो गढ़ता है और जो उड़ना चाहता है।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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हिन्दुस्थान समाचार / मुकुंद