कानपुर का जुलाई नरसंहार, अंग्रेजों ने क्रूरता की हद पार की
रमेश शर्मा जलियांवाला बाग में हुए सामूहिक नरसंहार को सब जानते हैं पर अंग्रेजों ने इससे पहले और इससे भीषण नरसंहार भी किए थे । इनमें एक भीषण नरसंहार जुलाई 1857 को कानपुर में हुआ । इसमें लगभग बीस हजार से अधिक निर्दोष नागरिकों को मौत के घाट उतारा गया थ
रमेश शर्मा


रमेश शर्मा

जलियांवाला बाग में हुए सामूहिक नरसंहार को सब जानते हैं पर अंग्रेजों ने इससे पहले और इससे भीषण नरसंहार भी किए थे । इनमें एक भीषण नरसंहार जुलाई 1857 को कानपुर में हुआ । इसमें लगभग बीस हजार से अधिक निर्दोष नागरिकों को मौत के घाट उतारा गया था । छह हजार का आंकड़ा तो अकेले कानपुर नगर का है । इस नरसंहार के खलनायक जनरल नील और जनरल हैवलॉक नामक दो सैन्य अधिकारी थे । 1857 की क्रांति में कानपुर और बिठूर में केवल पांच दिनों तक चला यह भीषण नरसंहार अकेला नहीं है । इस क्रांति के दमन के लिए लगभग हर स्थान पर भीषण नरसंहार हुए । इनमें अधिकांश के वर्णन तो जिला गजेटियरों में है। कानपुर का नरसंहार कितना भीषण था, इस बात का अनुमान केवल इस एक तथ्य से लगाया जा सकता है कि अंग्रेजों ने इस क्रांति के दमन के लिए लगभग हर स्थान पर एक एक जनरल तैनात किया ।

जनरल ह्यूरोज की कमान में जो सेना थी उसने मध्य प्रदेश के महू से अपना अभियान आरंभ किया और इंदौर, सीहोर, गढ़ी, राहतगढ़, सागर, आदि स्थानों के बाद झांसी कालपी और ग्वालियर में अभियान चलाया । अकेले कानपुर और बिठूर के लिए दो जनरल भेजे गए । वे भी ऐसे जो अपनी क्रूरता के लिए कुख्यात रहे । इसका कारण यह था कि 1857 में क्रांति का उद्घोष भले सिपाही मंगल पाण्डेय ने बंगाल इन्फ्रेन्ट्री से किया हो पर इसका मुख्य केंद्र कानपुर और मेरठ थे । इन स्थानों पर मई में क्रांत का आरंभ हुआ था । कानपुर में क्रांति के नायक नाना साहब पेशवा और तात्या टोपे थे । इनके नेतृत्व में सेना ने विद्रोह कर दिया था और नाना साहब पेशवा ने कानपुर में सत्ता संभाल ली थी। यहां कुछ अंग्रेज परिवार रहते थे । नाना साहब ने इन अंग्रेज परिवारों को सुरक्षित भेजने का प्रबंध किया और इन्हें गंगा पार कराने के लिए सत्ती चौरा भेजा गया । कुछ परिवार नावों से रवाना भी हो गए थे । किन्तु सत्ती चौरा में कुछ सैनिकों को गुस्सा आया और उन्होंने इन परिवारों पर हमला बोल दिया। इसमें कुछ अंग्रेज स्त्री-पुरुष मारे गए । यह घटना 26 जून, 1857 की है और इतिहास के पन्नों पर सत्ती चौरा कांड के नाम से जानी जाती है । इसमें मरने वाले अंग्रेजो की संख्या अलग-अलग बताई गई है ।

इस घटना से अंग्रेज बौखला गए। उन्होंने क्रूरतम अंग्रेज अधिकारियों की कमान में सेना कानपुर भेजी । जनरल हैवलॉक और जनरल नील के कमान में ये सेनाएं 16 जुलाई, 1857 को कानपुर पहुंचीं । इन सैन्य दलों ने पूरे नगर को घेर लिया। ब्रिटिश अधिकारियों को पहले उम्मीद थी कि ब्रिटिश परिवार सुरक्षित होंगे किन्तु जैसे ही उन्हे अंग्रेज परिवारों के मरने की जानकारी मिली तो उनका गुस्सा सांतवें आसमान पर पहुंच गया । और भारतीय नागरिकों का कत्लेआम शुरू कर दिया । इन सैनिकों के कानपुर और बिठूर में किए गए कुछ अत्याचारों का तो ऐसा वर्णन है जिसका उल्लेख करने में भी आत्मा कांपती है । लूटपाट, तोड़फोड़ और घरों को जलाना तो बहुत मामूली था । यह सेना नागरिकों के साथ जितने अत्याचार कर सकती थी वे सब किए गए। जनरल नील ने आदेश दिया कि पकड़े गए सभी सिपाही विद्रोही माने जाएं । उन्हे पकड़कर पहले बीबीघर परिसर ले जाया गया ।

सत्तीचौरा का बीबीघर वह स्थान था जहां कुछ अंग्रेज परिवारों की हत्या की गई थी । गुस्साए सैनिकों ने बंदी बनाए गए विद्रोही सैनिकों से उस फर्श को चाटने के लिए विवश किया गया, जहां अंग्रेज परिवारों का रक्त गिरा था । इसके बाद उन्हें गोली मारकर पेड़ों पर लटका दिया गया । जबकि कुछ को तोपों से बांध कर उड़ा दिया गया । उधर जनरल हैवलॉक ने कानपुर छावनी में उन 134 सैनिकों को भी गोली मार देने के आदेश दिए जो क्रांति से दूर होकर पुनः अंग्रेजों की सेवा करना चाहते थे । इसके बाद विद्रोह को संरक्षण देने और समर्थन देने वाले कस्बों की ओर सेना चली ।

इन कस्बों को घेर कर आग लगा दी गई । गांव के गांव जलाए गए । जिस गांव में आग लगाई जाती, उसे सेना पहले घेर लेती ताकि कोई जिंदा बाहर निकल कर भाग न सके । यह नरसंहार 16 जुलाई से आरंभ हुआ । कहीं-कहीं तिथि 17 जुलाई लिखी है । यह एक सप्ताह से अधिक समय चला । इतिहास की विभिन्न पुस्तकों में उल्लेख है कि जीटी रोड के किनारे जितने भी गांव थे, उन सभी को हैवलॉक ने जला दिया था। राहगीरों को मार-मार कर पेड़ों पर लटकाया गया । कानपुर के वर्तमान के मेघदूत चौराहे पर फांसी का मंच बनाया गया था। यहां केवल तीन दिन में छह हजार स्त्री-बच्चों की निर्ममता से हत्या की गई। कुछ इतिहासकार मानते हैं नृत्यांगना अजीजनबाई की टोली ने यहीं अंग्रेजों से लोहा लिया था । अजीजनबाई को हैवलॉक ने ही मारा था।

कानपुर में यह सब करके जनरल हैवलॉक बिठूर पहुंचा। उसकी कमान में मेजर स्टीवेन्सन की एक सैन्य टुकड़ी भी थी, जिसमें मद्रास फ्यूसिलियर्स और पंजाब बलूच सैनिकों की संख्या अधिक थी । यहां इस सेना का प्रतिरोध करने वाला कोई न मिला । उसने पेशवा नाना साहब के महल पर कब्जा कर लिया और जो व्यक्ति सामने पड़ा उसे मौत के घाट उतार दिया गया । ब्रिटिश सैनिकों ने पहले पेशवा के महल का सामान अपने अधिकार में लिया, जिसमें बंदूकें, हाथी और ऊंट और अन्य कीमती सामान था । और फिर महल में आग लगा दी। इसके बाद जैसा कत्लेआम कानपुर में किया था वैसा ही कत्लेआम बिठूर में किया ।

हैवलॉक की क्रूरता की कार्रवाई की तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने प्रशंसा की और हैवलॉक के नाम को अमर करने के लिए भारत के अंडमान निकोबार के एक द्वीप का नाम हैवलॉक द्वीप रखा । यह नाम स्वतंत्रता के 75 वर्षों तक यथावत रहा । इस नाम को पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बदलकर स्वराज द्वीप किया । अंग्रेजों के कानपुर आपरेशन में हैवलॉक के साथ रहे कमांडर शेरर ने अपनी पुस्तक हैवलॉक्स मार्च ऑन कानपुर में भी इस नरसंहार और अत्याचार का वर्णन किया है।

अंग्रेजों के नरसंहार और अत्याचारों का वर्णन इतिहास की पुस्तकों में तो है ही, हर जिले के गजेटियरों में भी इसका जिक्र है। आज की अधिकांश पीढ़ी इससे अनभिज्ञ है । यहां तक कि जिस हैवलॉक के अत्याचार से कानपुर का इतिहास भरा है उसी हैवलॉक के नाम पर बने द्वीप पर लोग पिकनिक मनाकर गौरवान्वित हुआ करते थे । हां उस द्वीप का नाम बदलने से कुछ लोग चौंके और इतिहास के पन्ने पलटे । तब यह सच्चाई सामने आ सकी।

(लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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हिन्दुस्थान समाचार / मुकुंद