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कानपुर, 10 जुलाई (हि.स.)। भारत में गुरुपूर्णिमा का पर्व केवल एक तिथि नहीं, बल्कि एक जीवंत परंपरा है-जो प्राचीन काल से हमारे जीवन और चिंतन का अभिन्न अंग रही है। यह बातें गुरुवार को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के पूर्वी उत्तर प्रदेश क्षेत्र के धर्म जागरण एवं समन्वय विभाग के संयोजक अभय ने कही।
छत्रपति शाहूजी महाराज विश्वविद्यालय (सीएसजेएमयू) के दीन दयाल शोध केंद्र की ओर से गुरू पूर्णिमा के अवसर पर आयोजित उत्सव कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि आरएसएस के पूर्वी उत्तर प्रदेश क्षेत्र के धर्म जागरण एवं समन्वय विभाग के संयोजक अभय मौजूद रहे। उन्होंने कहा कि भारत की प्राणशक्ति शिक्षा, भाषा, इतिहास और संस्कृति इन चार बिंदुओं में समाहित है। सनातन धर्म मे वेद का बहुत महत्व है, वेद अपौरषेय है, एक है, उसको वेदव्यास जी ने ही तीन भागों में विभक्त किया और बाद में अथर्वेद जोड़ा गया और पंचम वेद के रूप में महाभारत को माना गया है। वेदों को जानने के लिये सभी को महाभारत का अध्ययन करना चाहिए। इस अवसर पर उन्होंने कहा कि गुरु-शिष्य परंपरा की शुरुआत स्वयं ब्रह्मा–विष्णु–महेश से मानी जाती है और वेदों में श्रुति परंपरा के माध्यम से यह ज्ञान गुरु से शिष्य तक पहुँचाया गया।
विश्वविद्यालय के प्रति कुलपति व शोध केंद्र के निदेशक प्रो. सुधीर कुमार अवस्थी ने कहा कि गुरू पूर्णिमा पर्व न केवल ऐतिहासिक महत्व रखता है, बल्कि हमारी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक चेतना का मूल स्रोत भी है। हमारे धर्मग्रंथों, महाकाव्यों, दर्शनों और लोक परंपराओं में गुरु का स्थान सर्वोच्च माना गया है कहीं गुरु रूप में कोई संत, कहीं ऋषि-महर्षि और कहीं स्वयं भगवान तक को प्रतिष्ठित किया गया है।
रामायण और महाभारत में गुरु को केवल शिक्षा देने वाले नहीं, बल्कि धर्म, नीति और मोक्षमार्ग के पथप्रदर्शक के रूप में देखा गया है। गुरु स्वयं जीवन का प्रकाश हैं और गुरु पूर्णिमा उसी परंपरा की स्मृति है।
कार्यक्रम में महर्षि वेदव्यास जी के चित्र का पूजन किया गया। संचालन शोध केंद्र के सहायक निदेशक डॉ दिवाकर अवस्थी व धन्यवाद ज्ञापन डॉ श्रवण कुमार द्विवेदी ने किया। इस मौके पर स्वयंप्रकाश अवस्थी, संगम बाजपेयी, डॉ इंद्रेश शुक्ला समेत विश्वविद्यालय के विभन्न संकायों के शिक्षक व छात्र-छात्रएं उपस्थित रहे।
हिन्दुस्थान समाचार / रोहित कश्यप