राष्ट्रीय एकता का सूत्र अद्वैत
हृदयनारायण दीक्षित


हृदयनारायण दीक्षित

जीवन संघर्ष नहीं है। संघर्षपूर्ण जीवन तनाव देता है। पूरे जीवन को संघर्ष मानने का मूल द्वैतवाद है। द्वैतवाद का अर्थ है कि यहां इस जगत् में दो प्रमुख पक्ष हैं। एक मैं हूं और दूसरा यह संसार। मैं हूं और दूसरे आप। मैं और तुम दो हैं। आध्यात्मिक तल पर ईश्वर एक है, दूसरा मैं हूं। भक्त और भगवान दो हैं। प्रकृति में प्रकाश और अंधकार का द्वैत है। शीत और ताप का द्वैत है। सब तरफ दो का दर्शन। सृष्टि में अनेक जीव हैं। वनस्पतियां हैं। सबके रूप भिन्न-भिन्न हैं। जैव विविधता खूबसूरत है। सामाजिक क्षेत्र में पंथिक विभाजन हैं।

आर्थिक आधार पर गरीब और धनी में द्वैत है। जाति विभाजन में द्वैत है ही। लेकिन भारत में इस द्वैत के भीतर अद्वैत के दर्शन का विकास हुआ। अद्वैत का अर्थ है दो नहीं। दसों दिशाओं में व्याप्त एक ही परम तत्व भिन्न-भिन्न रूपों में रूप प्रतिरूप हो रहा है। पूरे अस्तित्व को एक जानने की अनुभूति ऋग्वेद के रचनाकाल में प्रकट हुई। उपनिषदों में व्यापक हुई। ब्रह्मसूत्रों में सिद्धांत बनी। बादरायण ने व्यवस्था दी। शंकराचार्य ने अद्वैत दर्शन का अभियान बनाया। रूप, लिंग, कुल, वंश, विश्वास, पंथ के आधार पर विभक्त समाज को अविभक्त देखने की दृष्टि अद्वैत कही गई। यह दर्शन निर्विकल्प है।

शंकर के अद्वैत का मूल अर्थ है इस अस्तित्व का प्रत्येक रूप और अंश उस एक ब्रह्म का ही रूप है। बृहदारण्यक उपनिषद में बहुत खूबसूरत ढंग से पूर्ण का अर्थ समझाया गया है। ऋषि कहते हैं, ''यह पूर्ण है। वह पूर्ण है। यह पूर्ण उस पूर्ण का विकास है। पूर्ण में पूर्ण घटाओ तो पूर्ण ही बचता है। पूर्ण से पूर्ण का गुणा करने पर भी पूर्ण पूर्ण ही रहता है।'' बहुत आश्चर्यजनक है यह पूर्ण। इसी पूर्ण के बोध में आनंद ही आनंद है। आचार्य शंकर के शब्दों में कहें तो उपनिषदों का आनंद सत् चित् आनंद है। यही सच्चिदानंद है। आनंद का अपना आनंद है।

तैत्तिरीय उपनिषद के ऋषि ने आनंद की मीमांसा की है और बताया है कि मनुष्य की तरुणाई, श्रेष्ठ आचरण, शील और बल संवृद्धि और धरती पर अधिकार यहां आनंद देता है। यहां आनंद के सारे स्रोत भौतिक हैं। ऋषि आगे जोड़ते हैं, ''लेकिन इच्छारहित ज्ञानी को यह आनंद स्वाभाविक रूप से प्राप्त है।'' फिर कहते हैं, ''इस आनंद का 100 गुना आनंद गंधर्व आनंद है। गंधर्व आनंद संस्कृति का पर्यायवाची है। संस्कृति से जुड़े लोग साधारण मनुष्य की तुलना में 100 गुना आनंद पाते हैं।'' लेकिन यह आनंद भी इच्छाशून्य ज्ञानी को स्वाभाविक रूप से प्राप्त है। आनंद के अनेक तल हैं। फिर पूर्वजों और पितरों के स्मरण को आनंदपूर्ण बताया गया है। यह भी अभिलाषाशून्य ज्ञानी को सहज प्राप्त है। आनंद अभीप्सु है। आनंद सब की प्यास है।

कठोपनिषद के ऋषि ने ठीक कहा है कि यह आत्मतत्व प्रवचन से नहीं मिलता और बुद्धि से भी नहीं। शंकराचार्य इसी ज्ञान को भारत के कोने-कोने तक पहुंचाने में संलग्न थे। उन्होंने अपने शिष्यों के साथ देश के प्रसिद्ध तीर्थों का दर्शन किया। तीर्थ केन्द्रों पर भी वेदांत विषय पर उन्होंने आमजनों का प्रबोधन किया और कड़ाई के साथ वैदिक परंपरा के विरोधियों की बातों का खंडन किया। उनके दिग्विजय अभियान में दक्षिण में सेतुबंध पहला पड़ाव था। मार्ग में उन्हें अनेक संतों विद्वानों से मिलने का अवसर मिला।

उन्होंने विद्वानों के प्रश्नों के उत्तर दिए। शंकर ने रामेश्वरम में पूजा की। फिर वह पांड्य और चोल क्षेत्रों की ओर बढ़े। जगह-जगह पर शास्त्रार्थ होते थे और वह सदाचरण व वेदांत को श्रेष्ठ बताते रहे। हस्तगिरि पर्वत पर अवस्थित कांचीनगर में आचार्य ने देवी के मंदिर की स्थापना की। फिर वे विदर्भ पहुंचे। राजा ने उनका स्वागत किया। वहां भैरवमातावनुयायियों की संख्या ज्यादा थी। आचार्य ने उन सबके बीच भी वेदांत दर्शन का विचार रखा। कर्नाटक प्रवास में आचार्य का सामना कापालिक मतानुयायियों से हुआ। इस मत का मुखिया आचार्य का विरोधी था। 'आदि शंकराचार्य जीवन और दर्शन' नामक पुस्तक में जयराम मिश्र ने लिखा है, ''कापालिकों की पराजय हुई। आचार्य शंकर ने स्वयं भी महाकापाली भैरव की स्तुति की। फिर आचार्य पश्चिमी समुद्र के प्रसिद्ध तीर्थ गोकरना पहुंचे। शंकर और नीलकंठ का शास्त्रार्थ हुआ।''

नीलकंठ और आचार्य के मध्य हुआ प्रश्नोत्तर दर्शन की अमूल्य निधि है। अंततः नीलकंठ ने आचार्य का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। आचार्य शंकर ने शिष्यों के साथ सौराष्ट्र क्षेत्र का भी भ्रमण किया। अनेक स्थानों पर उन्होंने अद्वैत का प्रचार किया। विद्वानों ने उनकी प्रशंसा की। उन्होंने प्रसिद्ध नगरी द्वारिका में प्रवेश किया। यह वैष्णवों का गढ़ था। शंकर के तर्क स्वीकार्य योग्य माने गए। उन्होंने उज्जैनी की यात्रा में भी संवाद बनाया। वे शिष्यों को लेकर महाकाल मंदिर में पूजा अर्चना के लिए भी गए। भट्ट भास्कर उस क्षेत्र के प्रतिष्ठित विद्वान थे। उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की थी। शास्त्रार्थ के दौरान भट्ट भास्कर ने शंकर से सहमति व्यक्त की।

परम पूर्ण तत्व को अलग-अलग विभाजित देखना भ्रम है और एकात्म देखना सत्य है। आचार्य का जैन मतावलंबियों से भी शास्त्रार्थ हुआ और उन्होंने उनको भी अद्वैत से सहमत कराया। बौद्ध मतावलंबियों का प्रभुत्व अभी कम नहीं था। अनेक बौद्ध विद्वानों ने वैदिक धर्म स्वीकार कर लिया। वह जगन्नाथ पुरी भी गए। मगध मार्ग से जाते मगधपुर, यमस्तपुर आदि अनेक नगरों में बौद्धों का बहुमत रहा है। मगध में अनेक मत प्रचलित थे। उस समय कुबेर के उपासक, इन्द्र के उपासक और यम उपासक आदि अनेक मत थे। वह सब अपने को वेद का अनुयायी मानते थे। शंकराचार्य की अद्भुत प्रतिभा ने उनके अंधविश्वास दूर कर दिए।

आचार्य शंकर ने सनातन धर्म के सभी संप्रदायों का वैदिक दृष्टि से शुद्धिकरण किया। हिन्दू धर्म की कथित विभाजित प्रवृत्तियों को समन्वित रूप दिया। एक नया इतिहास गढ़ा। वे प्रयाग भी गए और वाराणसी भी। आचार्य शंकर प्रयाग से वाराणसी तक सात दिन में पहुंचे थे। काशी में उन्होंने महादेव विश्वनाथ के दर्शन किए। पूजा की। पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण आचार्य शंकर की धूम थी। वह उत्तर प्रदेश के नैमिषारण्य तीर्थ भी गए। यह प्राचीन काल से ही प्रतिष्ठित स्थान है। यह एक समय वैदिक संस्कृति का महत्वपूर्ण केन्द्र था। यहां कर्मकाण्ड की प्रधानता थी। वहां पहुंचने पर आचार्य को प्राचीन संस्कृति के कोई लक्षण नहीं दिखलायी पड़े। इससे वे बहुत दुखी हुए। वहां बौद्ध तांत्रिकों की प्रधानता थी।

आचार्य ने वहां कुछ दिनों तक निवास कर वेदान्त सिद्धान्त का प्रचार किया। उन्होंने इस बात को सप्रमाण सिद्ध किया कि गौतम बुद्ध के सारे सिद्धान्त अद्वैत-सिद्धान्त पर ही आश्रित हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि वहाँ के लोग वेदोक्त रीति से धर्म-कर्म में प्रवृत्त होकर उपासना में अनुरक्त हुए। इसी प्रकार अयोध्या में भी उनका प्रवास हुआ। उन्होंने बंगाल का भी भ्रमण किया था। राष्ट्र की सांस्कृतिक एकता की नींव वैदिक ऋषियों ने रखी थी। शंकराचार्य ने आगे बढ़कर सांस्कृतिक एकता का विशाल भवन खड़ा किया। एक बार फिर जातिभेद, सांप्रदायिकता, आर्थिक गैरबराबरी, राष्ट्र की आंतरिक सुरक्षा और आतंकवाद जैसे मुद्दों पर आचार्य शंकर जैसे राष्ट्रव्यापी अभियान की आवश्यकता है।

(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

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हिन्दुस्थान समाचार / मुकुंद