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अरुण कुमार दीक्षित
अवनि अंबर में भारी तपिश है। यह तपिश प्रत्येक वर्ष बढ़ती जा रही है। टीवी, समाचार पत्रों, सोशल मीडिया में मौसम लगातार गर्म रहने की खबरें हैं। ग्लेशियर पिघलने की गति बढ़ने की जानकारी दी जा रही है। वैज्ञानिक इस कारण चिंता में है। विश्व के बढ़ते तापमान को वैज्ञानिकों ने बताया कि यह ग्लोबल वार्मिंग के कारण है। पूरे विश्व का पर्यावरण तंत्र बदल रहा है। भयावह तूफान आ रहे हैं। चक्रवाती तूफानों का आना बढ़ा है। पर्यावरण में अनेक तरह के बदलाव हो रहे हैं। ऋतु चक्र भी बदल रहा है। पक्षियों की कई प्रजातियां नष्ट हो चुकी हैं। कई के ऊपर खतरा मंडरा रहा है। पशुओं की संख्या घट रही है। वैज्ञानिक रिपोर्ट्स कहती हैं ग्लेशियरों के पिघलने से जल का प्रवाह बढ़ेगा। जल नदियों पहाड़ों से होते हुए समुद्र में जाएगा। महासागरों का जल स्तर बढ़ेगा। जल स्तर बढ़ने से पूरी दुनिया के अनेक नगरों को इस जल से डूबने का खतरा उत्पन्न होगा।
इस तरह की रिपोर्ट पहले भी आई हैं। पर्यावरण के प्रति हम सचेत नहीं होते हैं। पूरे विश्व का तापमान न बढ़े इस पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन लंबे समय से हो रहें हैं। पेरिस समझौते के 10 वर्ष हो रहे हैं। उत्सर्जन को हर हाल में कम करना ही होगा। सम्मेलनों के निष्कर्ष विश्व पर्यावरण को ठीक करने में नाकाम है। पूरे विश्व में विकास को लेकर प्रतिस्पर्धा है। प्रश्न है कि क्या आधुनिक विकास और विज्ञान मानव जीवन विरोधी है ? एआई (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) विज्ञान का चमत्कार है। यह एआई बढ़ते तापमान पर क्या करेगा ? महासागरों में बाढ़ आने पर क्या कर लेगा ? मछलियां नहीं होंगी, मोर नहीं नाचेंगे ? शेर, चीता, बिल्ली, कुत्ता,गाय, घोड़ा हाथी सब विलुप्त जाएंगे क्या। तब मनुष्य कितने बचेंगे ? जो रह जाएंगे उनके साथ रोबोट होंगे। वह होंगे तो प्लास्टिक एल्युमीनियम स्टील के रोबोट के साथ होंगे। अनेक रोबोट कम्पनियों में काम करते बताए जाते हैं। समझ सकते हैं कि रोबोट के मित्र उनके साथ काम करने वाले मनुष्यों की संवेदना कम जरूर हो रही होगी। वे रोबोट के ही स्वभाव के हो सकते हैं। यह खोज का विषय है।
विकसित राष्ट्र अधिकतम विकास कर अंतरिक्ष में कालोनी बनाना चाहते हैं। यह एक छोर है। दुनिया के कई देश रोटी-पानी , स्वास्थ्य, शिक्षा की बुनियादी जरूरतों को पूरा नही कर पा रहे। यह दूसरा छोर है। वे संघर्ष में हैं। पृथ्वी पर पड़ोसियों से परिचय मैत्री घटी है। फ्लैट और कालोनी में रहने वाले शहरी सभ्यों ने भारत की प्रणाम नमस्कार संस्कृति को आहत किया है। तब चन्द्रमा पर किस भगवत्ता को उपलब्ध होंगे। पूरी दुनिया युद्धों में है। इनसे लोग भयभीत हैं। शक्तिशाली देश संयुक्त राष्ट्र संघ की कोई बात सुनते नहीं। उसकी आवाज ही दबी हुई है। बढ़ते युद्धों और बारूदी प्रगति के बीच पर्यावरणीय क्षति बड़ा विषय है।
यह पर्यावरण तब ठीक होगा जब तापमान को घटाने के उपाय सामूहिक हों। दृढ़ इच्छा शक्ति से भरे हों। अरबों डीजल, पेट्रोल की गाड़ियां लगातार धरती पर तापमान बढ़ा रही हैं। औद्योगिक क्षेत्रों में भी भारी मशीनें चल रही हैं। डीजल पेट्रोल जलेगा तो कार्बन पर्यावरण में विचरण करेगा ही। वाहनों का कचरा अलग से है। ई-कचरा नई समस्या है। प्लास्टिक से बनी वस्तुओं ने समुद्र, नदियों,झीलों,तालाबों में जलीय जीवों को संकट में डाला है। जलीय जीवों में प्लास्टिक कण पाए गए हैं। प्लास्टिक के उचित प्रयोग पर सरकारें गम्भीर नहीं है। नगरों से गांवों तक प्लास्टिक कचरा है। कृषि भूमि चपेट में है। लोकसभा और विधानसभाओं में इस पर चर्चा नहीं है।
विज्ञान का स्वभाव है अभी और आगे ? वस्तुओं का अंत नहीं है। धर्म और विज्ञान साथ-साथ हैं। सनातन धर्म कहता है कि हमारे आचरण से किसी व्यक्ति या समूह, राष्ट्र की क्षति न होने पाए। भारत इसे एक सूत्र वाक्य में वसुधैव कुटुंबकम कहता है। संपूर्ण पृथ्वी हमारा परिवार है। समुद्र नदियों में ईश्वरीय अनुकंपा से जन्मे जलीय जीवों को जीने का पूरा अधिकार है। नदियों को वैदिक साहित्य में जल माताएं कहा गया है। नदियां भरतजनों की पूजनीय हैं। इन्ही नदियों के तटों पर कुंभ महाकुंभ हैं। नदियों के तटों पर विश्व में हजारों लाखों साल प्राचीन संस्कृतियों, सभ्यताओं का विकास हुआ है। नदियों, झीलों को सीवर लाइनों में परिवर्तित किया जा रहा है। वन संपदा औषधीय पेड़ों-पौधों के प्राकृतिक सौंदर्य को नष्ट करने की कार्रवाई जारी है। यह तब है जब इससे जुड़े बड़े मंत्रालय हैं। किसी एक देश में नहीं सभी देशों में हैं ऐसे मंत्रालय।
दुनिया के किसी विशेष क्षेत्र की बात नहीं पूरी दुनिया में समुद्र पाटे जा रहे हैं। पहाड़ों को गिराया जा रहा है। अंग्रेजी नाम वाले होटल भारत मे भी तेजी से बनाए जा रहे हैं। एक सितारा से पांच सितारा तक होटलों की महिमा है। भारत के पवित्र, धार्मिक, आध्यात्मिक क्षेत्र में यह सितारेदार होटल बनें इसके लिए सरकारें परेशान हैं। इन होटलों के लिए नदियों झीलों को पाट रहे हैं। मशीनें गरज रही हैं। आधुनिक विकास के कदमों से समुद्र को नाप कर हर्षित हो रहे हैं। चीन विश्व का सबसे बड़ा बांध बना रहा है। इसके निष्कर्ष अभी बाकी हैं। आधुनिक विकास विनाश का भाई है। दैवीय आपदाएं बढ़ी हैं। पारिस्थितिकी तंत्र नष्ट हो रहा है। बिजली की मांग बढ़ी है। करोड़ों पक्के नए घर बना रहे हैं। सीमेंट कंक्रीट के जंगलों से हरियाली पूर्ण सौंदर्य भरे नगर नहीं हैं। घरों में कैक्टस रखे हैं। पर्यावरण के साथ भारतीय संस्कृति का क्षरण तेजी से हो रहा है। अधिकतम पेड़ लगाया जाना पर्यावरण के लिए लाभदायक है। जनप्रतिनिधि तो कहीं पेड़ लगाते समय की या किसी पेड़ पौधे के साथ की सेल्फी से दिवस मना लेते हैं।
वन विभाग सरकारी धन का गोलमाल करता है। ग्राम पंचायतों में पौधरोपण के नाम पर भारी बजट का बंदरबांट है। पेड़ वहीं लगाए जाते हैं जहां उनकी सुरक्षा पानी का इंतजाम नहीं है। इसके बावजूद कई ग्राम पंचायतें शासन स्तर पर पुरस्कृत होती हैं। दूसरी तरफ सरकारों के दावे हैं कि वन क्षेत्र बढ़ा है। सरकारी तंत्र की इस निर्लज्जता पर समाज निरीह है। बेचारा है। कुछ पेड़ों को कटवाने पर रोक है। जिन पेड़ों पर रोक है वह पुलिस के सहयोग से कटते हैं। कभी-कभी वन संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत टारगेट में मुकदमे लिखे जाते हैं। फोटो खिंचवाकर पर्यावरण दिवस 05 जून को ठीक करने का प्रयास फिर होगा।
गीता के दसवें अध्याय में श्रीकृष्ण विभूतियों के वर्णन में कहते हैं, '' प्रकृति श्रेष्ठ है। उन्होंने प्रकृति की महिमा को कहा कि प्रकृति और ईश्वर एक है। वे सब मे व्याप्त हैं। प्रकृति सभी जीवधारियों को गर्भ में धारण करती है। कृष्ण यहां अपने दिव्य विभूतियों के संदर्भ में कहते हैं, वेदों में मैं सामवेद हूं। देवों में इंद्र और इंद्रियों में मन हूं। प्राणियों में उनकी चेतना हूं। जल में सागर मैं ही हूं। पर्वतों में हिमालय हूं। ज्योतियों में सूर्य हूं। नदियों में गंगा हूं। मछलियों में मगर हूं। वृक्षों में अश्वत्थ ( पीपल) हूं। सृष्टियों का आदि मध्य अंत मै हूं।'' कृष्ण के अर्थात उनके स्वयं के ब्रह्मांड के साथ सम्बन्धों का संकेत है। वह प्रकृति हैं जो हर कर्ता के पहले उपस्थित है।
ऋग्वेद में 'स्वस्ति' का अर्थ ही है, प्राकृतिक पदार्थों से कल्याण की भावना। यजुर्वेद में पवन हमारे लिए सुखकर चले की देवों से प्रार्थना है। अथर्ववेद में समस्त दिशाएं मित्रवत सुख दें वैदिक मनुष्य की अभीप्सा है। अथर्ववेद में ही सत्य, मृदु, संकल्प, तप, ज्ञान और त्याग के साधन से पृथ्वी के रक्षा करने की प्रार्थनाएं हैं। वैदिककाल में पर्यावरण के प्रति गहन अभिलाषा है। विशुद्ध पर्यावरण के लिए वैदिक दर्शन महामार्ग है। वैदिक काल के मनुष्य की प्रकृति से सहनाववतु की प्रार्थना है। दुनिया की प्राचीन सिंधु सभ्यता के अवशेष बताते हैं कि जीवन आनंदमगन रहा होगा। वस्तुतः पर्यावरण एक नाम है। वैदिक वाङ्ग्मय में पृथ्वी, आकाश, जल, वायु ,अग्नि, पंचमहाभूत तत्व हैं। इनके ही ठीक रहने से पर्यावरण विशुद्ध होगा। जिस तरह दूषित करने के सभी दोषी हैं। ठीक उसी तरह सबको पर्यावरण प्रदूषित होने से बचाने के लिए आगे आना होगा।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / मुकुंद