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गांधीनगर, 4 जून (हि.स.)। हड़प्पा सभ्यता के उदय से बहुत पहले, गुजरात के कच्छ क्षेत्र के विस्तृत इलाके समृद्ध प्रागैतिहासिक शिकारी-संग्राहक समुदायों के आवास स्थल थे। ताजा शोध में ऐसा पुरातात्विक साक्ष्य मिला है जो इस क्षेत्र में मानवीय उपस्थिति को हड़प्पा युग से हजारों वर्ष पहले तक ले जाता है।
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान गांधीनगर (IITGN) के शोधकर्ताओं ने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर (IITK), अंतर-विश्वविद्यालय त्वरक केंद्र (IUAC) दिल्ली और भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला (PRL) अहमदाबाद के विशेषज्ञों के साथ मिलकर हाल में किए गए शोध के दौरान ऐसा पुरातात्विक साक्ष्य खोजा है जो इस क्षेत्र में मानवीय उपस्थिति को हड़प्पा युग से कम से कम पाँच हजार वर्ष पहले तक ले जाता है।
शोध के दौरान इस बात के संकेत मिले हैं कि ये प्रारंभिक समुदाय मैन्ग्रोव से भरपूर स्थलाकृति में रहते थे और भोजन के लिए प्रमुख रूप से शंख प्रजातियों (द्विकपाटी जैसे सीपी (ऑयस्टर) और गैस्ट्रोपोड्स) पर निर्भर थे, जो इस प्रकार के पर्यावरण के लिए प्राकृतिक रूप से अनुकूलित होती हैं।
आईआईटी गांधीनगर के पृथ्वी विज्ञान विभाग में पुरातात्विक विज्ञान केंद्र के एसोसिएट प्रोफेसर और इस अध्ययन के प्रमुख अन्वेषक प्रो. वी.एन. प्रभाकर ने बताया कि “ब्रिटिश सर्वेक्षणकर्ताओं ने पहले भी इस क्षेत्र में शंख के जमाव का उल्लेख किया था लेकिन उन्हें शंख-मिट्टियों की साइट (यानी मानव उपभोग के बाद फेंके गए शंखों के ढेर) के रूप में नहीं पहचाना गया था। सर्वप्रथम हमने इन स्थलों की पहचान, उनके सांस्कृतिक महत्व को मान्यता देने और उनके कालक्रम के संदर्भ की पुष्टि करने संबंधी अध्ययन किया है। ”
इन स्थलों की आयु निर्धारित करने के लिए शोधकर्ताओं ने एक्सेलेरेटर मास स्पेक्ट्रोमेट्री (AMS) तकनीक का उपयोग किया, जो शंख के अवशिष्ट, जो सभी जीवित जीवों द्वारा अवशोषित होता है, उसमें से कार्बन-14 (C-14) के रेडियोधर्मी समस्थानिक के मूल्यों को मापने की सटीक विधि है। विश्लेषण के परिणामों ने यह पुष्टि की कि ये शंख-मिट्टी स्थल हड़प्पा काल से कहीं बहुत पहले के हैं, जो इस क्षेत्र में प्राचीन मानवीय आबादी/ मानव आवास के दुर्लभ प्रमाण प्रदान करते हैं।
कच्छ क्षेत्र में ये नव-चिह्नित स्थल ऐसे पहले स्थल के रूप में आलेखित किए गए हैं जिनका एक निश्चित सांस्कृतिक और कालक्रमिक संदर्भ है। शोधकर्ताओं के अनुसार, निष्कर्ष यह भी दर्शाते हैं कि इनमें और पाकिस्तान के लसबेला और मकरान क्षेत्रों तथा ओमान प्रायद्वीप के तटीय पुरातात्विक स्थलों में काफी समानताएं हैं, जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इस व्यापक सीमावर्ती क्षेत्रों में प्रारंभिक तटीय समुदायों द्वारा भोजन संग्रहण और जीविका के लिए समान रणनीतियाँ अपनाई गई होंगी ।
शंखों के बिखराव और जमाव के अलावा, टीम को कई प्रकार के पत्थर के औज़ार भी मिले, जो काटने, छीलने और चीरने जैसे कार्यों में प्रयुक्त होते थे। उन पत्थरों के मूल खंड भी मिले जिनसे ये उपकरण बनाए गए थे। IITGN में पोस्टडॉक्टोरल शोधकर्ता और इस अध्ययन की सह-लेखिका डॉ. शिखा राय ने बताया कि “इन औजारों और उन्हें बनानेवाले घटकों (कच्चा माल) की उपस्थिति से पता चलता है कि ये समुदाय दैनिक उपयोग के लिए उपकरणों के निर्माण में दक्ष थे।” यह कच्चा माल संभवतः खड़ीर द्वीप से प्राप्त हुआ होगा, जहाँ अब प्रसिद्ध हड़प्पा नगर धोलावीरा स्थित है, हालांकि अन्य स्रोत भी संभव हो सकते हैं।
ये निष्कर्ष इस क्षेत्र की सांस्कृतिक विकास प्रक्रिया पर नया प्रकाश डालते हैं। वे इस सामान्य धारणा को चुनौती देते हैं कि कच्छ में शहरीकरण मुख्यतः सिंध क्षेत्र के प्रभाव से उत्पन्न हुआ था। प्रो. प्रभाकर ने कहा कि “बाहरी प्रभावों के अचानक आने के बजाय, यहाँ हम एक ऐसी प्रक्रिया देखते हैं जहां सांस्कृतिक विकास और अनूकूलन की प्रक्रिया क्रमिक है और जिसकी जड़ें स्थानीय रूप से फैली हैं। स्थानीय भूगर्भ, जल संसाधनों और नौवहन के इस संचित ज्ञान ने संभवतः बाद में हड़प्पावासियों को उनकी बस्तियों की अधिक प्रभावी योजना बनाने में सहायता की और लंबी दूरी तक व्यापार करने में उन्हें लगाए रखा।”
शोधकर्ता मानते हैं कि ये शंख-मिट्टियाँ और उनका बिखराव पुरापर्यावरणीय (palaeoclimate) अध्ययनों में भी महत्वपूर्ण साबित होंगे। चूँकि जलवायु परिवर्तन हज़ारों वर्षों में धीरे-धीरे होता है और इसे अल्पकाल में प्रत्यक्ष रूप से नहीं देखा जा सकता, इसलिए शंख जैसे प्राकृतिक पदार्थ उन संकेतों का संरक्षण करते हैं जो अतीत के पर्यावरण के पुनर्निर्माण में सहायता प्रदान करते हैं।
आईआईटी गांधीनगर के पूर्व अध्ययनों ने खड़ीर द्वीप के पिछले 11,500 वर्षों के पुरापर्यावरणीय मानचित्रण का कार्य पहले ही किया है। हाल में खोजे गए इन शंख-मिट्टियों का और अधिक विश्लेषण, उन जलवायु परिस्थितियों के बारे में महत्वपूर्ण नई जानकारियाँ दे सकता है, जिनमें प्रारंभिक मानव जीवनयापन करता था।
शोध टीम का अगला लक्ष्य गुजरात में प्रागैतिहासिक से ऐतिहासिक काल तक की सांस्कृतिक प्रगति का मानचित्र तैयार करना है, ताकि यह समझा जा सके कि मानव अनुकूलन की प्रक्रिया कैसे विकसित हुई।
हिन्दुस्थान समाचार / Abhishek Barad