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लखनऊ, 2 जून (हि.स.)। बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय (बीबीएयू), लखनऊ के स्कूल ऑफ़ लाइफ साइंसेज की संकायाध्यक्ष प्रो. संगीता सक्सेना, जैव प्रौद्योगिकी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. युसुफ अख्तर एवं शोध छात्रा प्रियंका की टीम ने, सी.एस.आई.आर–हिमालयन बायोरिसोर्स टेक्नोलॉजी संस्थान (IHBT), पालमपुर के शोधकर्ताओं के साथ मिलकर पपीता के पौधों को लीफ कर्ल नामक खतरनाक बीमारी से बचाने का एक नया तरीका खोजा है। इस अवसर पर विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. राज कुमार मित्तल ने टीम को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं दीं और उनकी इस उपलब्धि को विश्वविद्यालय के लिए गौरव का विषय बताया।
यह बीमारी बेगोमोवायरस नामक वायरस के कारण होती है, जो सफेद मक्खियों (व्हाइटफ्लाई) के जरिए फैलती है। यह वायरस पत्तियों को मोड़ देता है, पौधे की वृद्धि रोक देता है और फलों को नुकसान पहुंचाता है, जिससे किसानों को भारी नुकसान होता है।
शोधकर्ताओं ने एक ऐसा तरीका विकसित किया है जो पौधों के लिए टीके जैसा काम करता है। इस तकनीक में न तो रसायनों का प्रयोग होता है और न ही आनुवंशिक रूप से संशोधित बीजों का। इसके बजाय, उन्होंने पौधों की पत्तियों पर डबल-स्ट्रैंडेड आरएनए नामक विशेष आरएनए का छिड़काव किया। यह आरएनए पौधे की प्राकृतिक प्रतिरक्षा प्रणाली को सक्रिय करता है और वायरस को बढ़ने से रोकता है। यह शोध फिजियोलॉजिकल एंड मॉलिक्यूलर प्लांट पैथोलॉजी (एल्सेवियर) नामक प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय पत्रिका में प्रकाशित हुआ है और यह दिखाता है कि यह तरीका सुरक्षित और प्रभावी है। भारत दुनिया में सबसे अधिक पपीता पैदा करता है, लेकिन यह फसल लीफ कर्ल वायरस के प्रति बहुत संवेदनशील है। शोधकर्ताओं ने वायरस के महत्वपूर्ण हिस्सों से डबल-स्ट्रैंडेड आरएनए तैयार किया और इसका छिड़काव पपीता और प्रयोगात्मक पौधों पर किया। परिणाम बहुत ही सकारात्मक रहे, जिन पौधों परडबल-स्ट्रैंडेड आरएनए का प्रयोग किया गया, वे 15 दिनों तक स्वस्थ रहे और वायरस की मात्रा बिना उपचार वाले पौधों की तुलना में 6 से 7.7 गुना कम पाई गई।
प्रो. संगीता सक्सेना, जिन्होंने इस शोध का नेतृत्व किया, ने बताया कि टीम ने वायरस के ऐसे हिस्सों का चयन किया जो जल्दी नहीं बदलते, जिससे यह तरीका कई तरह के बेगोमोवायरस पर असरदार बन गया। डॉ. युसुफ अख्तर, जिन्होंने बायोइंफॉर्मेटिक्स विश्लेषण और डेटा जांच में योगदान दिया, ने बताया कि यह पहली बार है जब पपीता को बचाने के लिए नॉन-जेनेटिकली मॉडिफाइड तरीके का प्रयोग किया गया है। यह तकनीक पर्यावरण के लिए सुरक्षित है, प्राकृतिक रूप से नष्ट हो जाती है और सिर्फ 20 माइक्रोग्राम प्रति पौधे की अल्प मात्रा में काम करती है, जिससे यह किसानों के लिए किफायती और आसान हो जाती है। यह तरीका आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलों से अलग है, जिन्हें मंजूरी में सालों लगते हैं और जनमत का भी सामना करना पड़ता है। यह तकनीक तुरंत इस्तेमाल के लिए तैयार है और पौधे के डीएनए को नहीं बदलती। यह रासायनिक कीटनाशकों का एक अच्छा विकल्प भी है, जो पर्यावरण को नुकसान पहुंचा सकते हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि इस डबल-स्ट्रैंडेड आरएनए स्प्रे को किसानों के लिए एक रेडी-टू-यूज़ फार्म में उपलब्ध कराया जा सकता है। शोधकर्ता अब प्रयोगशाला के बाहर इस तकनीक को खेतों में आजमाने की योजना बना रहे हैं। वे ऐसे नए तरीकों पर भी काम कर रहे हैं, जैसे नैनो-कैरियर तकनीक, जिससे डबल-स्ट्रैंडेड आरएनए पौधों पर अधिक समय तक टिके और वास्तविक खेती की परिस्थितियों में बेहतर काम करे। यदि यह प्रयास सफल रहता है, तो यह न केवल पपीता बल्कि अन्य फसलों को भी वायरस जनित बीमारियों से बचा सकता है, जिससे किसानों को फसल क्षति कम करने और खाद्य सुरक्षा बढ़ाने में मदद मिलेगी। प्रो. संगीता की पीएचडी छात्रा प्रियंका ने इस अध्ययन में सभी इन-विट्रो प्रयोगों को स्थापित करने में प्रमुख भूमिका निभाई।
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हिन्दुस्थान समाचार / डॉ. जितेन्द्र पाण्डेय