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ओम प्रकाश सिंह
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) की तिब्बत में लागू की जा रही सांस्कृतिक और राजनीतिक नीतियों को लेकर एक नई अमेरिकी रिपोर्ट में गंभीर चिंता जताई गई है। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि राष्ट्रपति शी जिनपिंग के शासनकाल में तिब्बती बच्चों को जबरन चीन की संस्कृति और भाषा में ढालने की कोशिश हो रही है, जिससे उनकी पारंपरिक पहचान और धार्मिक स्वतंत्रता को गहरा आघात पहुंच रहा है।
रिपोर्ट के मुताबिक चीन सरकार ने तिब्बती बच्चों को कम उम्र में ही उनके परिवारों और समुदायों से अलग करके आवासीय बोर्डिंग स्कूलों में भेजना शुरू कर दिया है, जहां उन्हें सिर्फ मंदारिन भाषा सिखाई जा रही है और तिब्बती भाषा, संस्कृति और बौद्ध परंपराओं से दूर रखा जा रहा है। लगभग दस लाख तिब्बती बच्चे अब इन सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे हैं, जहां उनका संपर्क पारंपरिक तिब्बती शिक्षा और धार्मिक वातावरण से कट जाता है। रिपोर्ट कहती है कि यह सिर्फ भाषा की शिक्षा नहीं है, बल्कि यह तिब्बती पहचान को मिटाने की एक संगठित कोशिश है।
रिपोर्ट के अनुसार, धार्मिक मामलों पर निगरानी रखने वाले अधिकारियों द्वारा बौद्ध भिक्षुओं और ननों पर कड़ा नियंत्रण रखा जा रहा है। उन्हें सरकार की अनुमति के बिना धार्मिक शिक्षा देने की मनाही है। यहां तक कि बच्चों को मठों में प्रवेश करने या धार्मिक गतिविधियों में भाग लेने से भी रोका जा रहा है। कई मठों पर निगरानी कैमरे लगाए गए हैं, और भिक्षुओं को अपनी धार्मिक निष्ठा के बजाय चीन के प्रति 'देशभक्ति' दिखाने के लिए मजबूर किया जाता है।
शी जिनपिंग द्वारा बार-बार 'राष्ट्रीय एकता' और 'चीनी राष्ट्र की एकता' की बात की जाती है, लेकिन आलोचकों का कहना है कि इसके नाम पर सांस्कृतिक विविधता को खत्म किया जा रहा है। तिब्बत, शिनजियांग और इनर मंगोलिया जैसे क्षेत्रों में स्थानीय भाषाओं और परंपराओं को दबाकर चीनी पहचान को थोपने का प्रयास किया जा रहा है। तिब्बती के साथ-साथ उइगर मुसलमानों और मंगोलियन सभ्यता और संस्कृति के लोगों को भी इसी तरह से थोपी गई नीतियों से दबाया जा रहा है। रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया है कि 2014 से अब तक शी जिनपिंग ने बार-बार यह दोहराया है कि सभी जातीय समूहों को एक साझा राष्ट्रीय पहचान के तहत आना चाहिए। इस विचारधारा के तहत स्थानीय पहचान और विविधता को कम किया जा रहा है।
भारत में मौजूद निर्वासित तिब्बती सरकार (सेंट्रल तिब्बती एडमिनिस्ट्रेशन) ने इस अमेरिकी रिपोर्ट का समर्थन करते हुए कहा है कि तिब्बती बच्चों को जबरन मंदारिन सिखाकर और उनकी मातृभाषा को हटाकर चीन उनकी सांस्कृतिक जड़ों को नष्ट करना चाहता है। भारत के धर्मशाला स्थित प्रशासन ने यह भी कहा कि तिब्बती बच्चों को जो शिक्षा दी जा रही है, वह न केवल उनकी भाषाई पहचान मिटा रही है, बल्कि उनके धार्मिक और नैतिक मूल्यों को भी तोड़ रही है।
यूएन ह्यूमन राइट्स कमीशन और एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसे संगठनों ने चीन के इस रवैये की पहले भी आलोचना की है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, तिब्बत में धार्मिक स्वतंत्रता पर गंभीर प्रतिबंध लगाए जा रहे हैं और सरकार द्वारा नियंत्रित शिक्षा प्रणाली में बच्चों को ‘देशभक्त नागरिक’ के रूप में ढाला जा रहा है।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र और उसके बाहर रहने वाले तिब्बती बच्चों के लिए हजारों आवासीय स्कूल संचालित किए जा रहे हैं। इन स्कूलों का मकसद बताया जाता है कि यह आधुनिक शिक्षा और जीवन कौशल प्रदान करते हैं, लेकिन आलोचक कहते हैं कि ये स्कूल एक तरह से 'री-एजुकेशन कैंप' हैं, जहां बच्चों को चीनी संस्कृति में ढालने का प्रयास होता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि स्कूलों में न केवल मंदारिन को मुख्य भाषा बनाया गया है, बल्कि पाठ्यक्रम भी इस प्रकार डिजाइन किया गया है कि उसमें तिब्बती इतिहास, धर्म या संस्कृति के लिए कोई स्थान नहीं है।
तिब्बत में धार्मिक गतिविधियों, साहित्य, सोशल मीडिया और यहां तक कि पारिवारिक समारोहों तक पर सरकार की सख्त निगरानी है। किसी भी असहमति को 'अलगाववाद' या 'राष्ट्रविरोधी गतिविधि' मानकर दंडित किया जा सकता है। कई मामलों में भिक्षुओं और धार्मिक नेताओं को हिरासत में लिया गया है या उन्हें जबरन 'देशभक्त प्रशिक्षण कार्यक्रमों' में भाग लेने के लिए मजबूर किया गया है। यह प्रशिक्षण उन्हें उनकी संस्कृति से काटने का एक जरिया है।
अमेरिकी रिपोर्ट में बताया गया है कि तिब्बत में शिक्षकों को विशेष रूप से प्रशिक्षण दिया जा रहा है कि वे बच्चों को 'राष्ट्रीय एकता' और 'देशभक्ति' का पाठ पढ़ाएं। शिक्षकों पर दबाव डाला जाता है कि वे बच्चों की वैचारिक सोच को चीन के अनुसार ढालें। इस प्रक्रिया में बच्चों को न केवल उनके धार्मिक विश्वासों से अलग किया जाता है, बल्कि पारिवारिक और सांस्कृतिक मूल्यों से भी दूर किया जा रहा है।
विशेषज्ञों का मानना है कि अगर यह प्रक्रिया जारी रही तो अगली पीढ़ी के तिब्बती युवा अपनी भाषा, धर्म और संस्कृति से पूरी तरह कट जाएंगे। इससे न केवल उनकी पहचान पर संकट मंडराएगा, बल्कि तिब्बती समुदाय की सामाजिक संरचना और आत्मसम्मान पर भी गंभीर प्रभाव पड़ेगा। एक तिब्बती मानवाधिकार कार्यकर्ता के शब्दों में, हमारी संस्कृति को मिटाने की यह प्रक्रिया गुप्त नहीं, बल्कि खुलेआम हो रही है-स्कूलों, मठों, और हर सार्वजनिक स्थान पर।
हालांकि अमेरिका और कुछ यूरोपीय देश तिब्बती मुद्दों पर चीन से सवाल करते रहे हैं, लेकिन चीन की आर्थिक और राजनीतिक ताकत के कारण कोई भी देश निर्णायक हस्तक्षेप नहीं कर पा रहा है। तिब्बती नेताओं और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय से अपील की है कि वे केवल बयानबाजी न करें, बल्कि चीन पर दबाव बनाने के लिए ठोस कदम उठाएं।
दरअसल राष्ट्रपति शी जिनपिंग की ‘राष्ट्रीय एकता’ की नीति ने तिब्बत की सांस्कृतिक स्वतंत्रता पर गहरा असर डाला है। बच्चों को जबरन मंदारिन सिखाने से लेकर धार्मिक स्थलों पर निगरानी तक, हर कदम तिब्बती पहचान को कमजोर करने की दिशा में उठाया जा रहा है। यदि यह स्थिति यूं ही बनी रही, तो आने वाले वर्षों में तिब्बती भाषा, धर्म और संस्कृति को संरक्षित रखना बेहद कठिन हो जाएगा। वहां रहने वाले उइगर मुसलमानों, मंगोलियन और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों की सभ्यता संस्कृति की भी यही दुर्दशा होनी है। यह केवल एक सांस्कृतिक संकट नहीं, बल्कि एक पूरे समुदाय के अस्तित्व से जुड़ा सवाल बन चुका है।
(लेखक, हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)
हिन्दुस्थान समाचार / ओम पराशर