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जेईई एडवांस 2025 में हासिल की 3722वीं रैंक
हिसार, 12 जून (राजेश्वर बैनीवाल)। जब गांव की धूल भरी गलियों से कोई किशोर सपना लेकर निकलता है और उस सपने को साकार करने के लिए खुद को तपाकर बड़ा करता है तो वह केवल अपना भाग्य नहीं बदलता, बल्कि पूरे गांव और समाज के सोचने का ढंग बदल देता है। ऐसा ही कुछ कर दिखाया है जिले के कालवास गांव के होनहार छात्र विपुल लांबा ने। विपुल ने देश की सबसे कठिन प्रतियोगी परीक्षाओं में शुमार जेईई एडवांस 2025 में 3722वीं अखिल भारतीय रैंक और ईडब्ल्यूएस श्रेणी में 370वीं रैंक हासिल कर, अपनी मिट्टी, अपने माता-पिता और अपने गांव को गर्व से भर दिया है।यह महज एक परीक्षा उत्तीर्ण करने की कहानी नहीं है, यह उस गहरे आत्मविश्वास, अविरत परिश्रम और परिवार के त्याग की कहानी है, जो गांव की सीमाओं के बीच पनपता है, फिर राष्ट्रीय स्तर पर खिल उठता है। विपुल के पिता विनोद लांबा सीमित संसाधनों में खेत की मिट्टी में रोटी उपजाते रहे, और मां बिमला देवी ने पारिवारिक दुखों को छुपाकर बेटे के उज्ज्वल भविष्य का सपना सींचा। यह वही परिवार है जिसने पहले ही अपनी दो बेटियों को असमय खो दिया था। विपुल ही अब उनकी आशाओं का केन्द्र था।गांव के सरकारी स्कूल से दसवीं तक पढ़ाई कर चुके विपुल को कोटा भेजने का निर्णय उनके पिता के लिए सरल नहीं था लेकिन जब निर्णय लिया, तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने खेती करना छोड़ दी, ट्रैक्टर बेच दिया, पशु तक दूसरे के हवाले कर दिए ताकि बेटे के सपने किसी कमी के कारण अधूरे न रह जाएं। विपुल अब पूरे गांव की सांकेतिक प्रेरणा बन गया है।कोटा जैसे बड़े शहर में, जहां हर साल लाखों छात्र कोचिंग के लिए पहुंचते हैं, वहां विपुल ने स्वयं को भीड़ में खोने नहीं दिया। उसने न सोशल मीडिया का मोह पाला, न आराम को महत्व दिया। दिन के 12–14 घंटे, उसने केवल किताबों, सवालों और सपनों के बीच बिताए। इस संघर्ष की पृष्ठभूमि में केवल आईआईटी नहीं था, वहां एक किसान की झुकी हुई कमर थी, एक मां की चुप रहकर रोती आंखें थीं और एक गांव की आशाओं का बोझ था।जब जेईई एडवांस का परिणाम आया और विपुल का नाम चमकता दिखा तो यह सिर्फ एक छात्र का नहीं, पूरे कालवास गांव का गौरव बन गया। गांव के बुजुर्गों ने आशीर्वाद दिया, युवाओं ने उसे आदर्श माना, और उसके पिता विनोद लांबा की आंखों से वर्षों का संचित दुख आंसुओं के रूप में बह निकला।बेटे की सफलता पर प्रसन्नचित्त विनोद बोले कि हमने खेत छोड़ा, पर बेटे को नहीं। अब लगता है कि हमारे त्याग को सही दिशा मिली है। विपुल की सफलता यह साबित करती है कि गांव का बेटा भी अगर ठान ले तो आकाश की ऊंचाइयों को छू सकता है। युवा विपुल लांबा ने भी बड़ी विनम्रता से अपनी सफलता को व्यक्तिगत नहीं, गांव और परिवार का साझा प्रयास बताया। विपुल का कहना है कि उसके पास बहुत कुछ नहीं था, लेकिन मां-पापा का विश्वास था, गांव की शांति थी और मेरे भीतर सपने थे। आज मैं जहां पहुंचा हूं, वहां तक हर उस बच्चे को पहुंचना चाहिए जो गांव में बैठकर खुद को कमतर मानता है। हम पीछे नहीं हैं–हम बस थोड़ा छूटे हैं, लेकिन रफ्तार हमारी भी तेज़ हो सकती है।इस सफलता पर इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू) के ग्रामीण विकास विभाग में सहायक प्राध्यापक डॉ. बलकार सिंह पूनिया ने कहा कि विपुल की सफलता इस बात की गवाही है कि भारत का भविष्य केवल शहरों में नहीं बसता। यदि गांवों में प्रतिभा को अवसर मिले, तो वही छात्र देश की उन्नति की दिशा तय कर सकते हैं। गांव की शिक्षा, मेहनत और संस्कार यदि मार्गदर्शन से जुड़ जाएं तो प्रतिभाएं निखरती ही नहीं, दिशा भी बदल देती हैं।
हिन्दुस्थान समाचार / राजेश्वर