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प्रियंका सौरभ
पिछली सदी में साइकिल की घंटी, सांझ की चौपाल, या आंगन का पीपल रिश्तों की धड़कन होते थे। किसी के दरवाजे पर दो बार दस्तक हुई तो मतलब साफ था-चाय पकाओ, गपशप होने वाली है। आज दरवाजा कम बजता है, मोबाइल ज्यादा। और मोबाइल भी कई बार हाथ में नहीं, डाइनिंग-टेबल पर पड़ा-पड़ा नोटिफिकेशन बजाता है-पैकेज आउट फॉर डिलीवरी। दिनचर्या इतनी ऐप आधारित हो चुकी है कि रिश्ते भी 'ऑन-डिमांड सर्विस' जैसा अनुभव देने लगे हैं। मां की याद तब आती है जब 'घर का अचार' खत्म हो जाता है। भाई का नाम फोन-बुक में तभी स्क्रॉल होता है जब ट्रैफिक चालान से बचने के लिए किसी कनेक्शन की दरकार होती है। कॉलेज के दोस्त तभी याद करते हैं जब उन्हें किसी रेफरेंस लेटर की जरूरत पड़ती है। 'दिलचस्पी' दिनदहाड़े गायब हो चुकी है और हमने गुमशुदगी की रिपोर्ट भी नहीं लिखवाई। क्यों? क्योंकि हमारी जरूरतें आराम से पूरी हो रही हैं।
जरूरत और दिलचस्पी का द्वंद्वः जरूरतें बुरी नहीं हैं। पानी, भोजन, सुरक्षा, सहा-ये सब एक बुनियादी सच हैं। समस्या तब शुरू होती है जब रिश्तों की पूरी परिभाषा ही जरूरतों पर टिक जाती है। प्यार, आदर, साझा हंसी, बेवजह के मेसेज-ये सब 'लग्जरी आइटम' माने जाने लगते हैं। नतीजा? संवाद सूखता है, उत्साह मुरझाता है और रिश्ता अपनी ही परछाई ढोता रहता है। 'कैसे हो?' का जवाब कभी ताल्लुक निभाने के लिए था। अब यह कस्टमर केयर का स्क्रिप्टेड सवाल लगने लगा है। जोश, जिज्ञासा और जुड़ाव, एक-एक कर सिकुड़ते हैं। दिलचस्पी 'टॉप-अप' की तरह है। समय-समय पर न हो तो सर्विस बंद। पर हम अकसर इसे भूल जाते हैं और फिर हैरान होते हैं कि नेटवर्क क्यों नहीं आ रहा।
आधुनिकता के चार कड़वे साइड इफैक्ट
1. डिजिटल पुल और भावनात्मक दूरीः हम 'कनेक्टेड' तो हैं, पर 'क्लोज' नहीं। विडंबना देखिए-वीडियो कॉल करते हुए भी हम आंखों में आंखें नहीं देख पाते, क्योंकि कैमरा स्क्रीन के ठीक बगल में है।
2. समय का निवेश नहीं, आउटसोर्सिंग का चलनः जन्मदिन का केक, सालगिरह का तोहफा, मां के घुटनों की दवाई-सब 'ऐप सेकेंड' में बुक। व्यक्तिगत श्रम की जगह 'प्रोसेस्ड केयर' ने ली। एहसान की जगह 'ट्रैकिंग आईडी'।
3. पर्सनल ब्रांडिंग का दबावः रिश्ते अब फोटो-फ्रेंडडली मूमेंट्स का कोलाज हैं। रियल्टी में खिलखिलाना कम है। सोशल फीड में 'स्टोरी' ज्यादा। हर मुलाकात एक संभावित पोस्ट है। और पोस्ट अगर लाइक्स न बटोर पाए तो दोस्ती में भी 'कंटेंट वैल्यू' कम आंकी जाती है।
4. उपभोक्तावाद का शोरः मार्केटिंग ने हमें सिखाया-संतुष्टि खरीदी जा सकती है। नतीजे में हम रिश्तों से भी रिटर्न-ऑन-इन्वेस्टमेंट चाहने लगे। मैंने दादी को विंटर जैकेट भेजा, बदले में वीडियो कॉल तक नहीं मिला। जैसे स्नेह कोई कैश-बैक स्कीम हो।
सामाजिक विज्ञान का नजरियाः समाजशास्त्री बताते हैं कि औद्योगिक क्रांति से लेकर आईटी क्रांति तक, जैसे-जैसे जॉइंट फैमिली से न्यूक्लियर फैमिली की ओर झुकाव बढ़ा, जिम्मेदारियां तो विभाजित हुईं पर समर्थन-तंत्र भी बिखर गया। अब हर इकाई अपने दम पर दौड़ रही है, इसलिए 'सर्वाइवल' सर्वोच्च प्राथमिकता बन गया। दिलचस्पी एक 'नॉन-एसेंशियल अमीनीटी' की तरह अंत में जुड़ती है, अगर शक्ति और समय बचा तो।
मानसिक स्वास्थ्य पर असरः इनसान सामाजिक प्राणी है-यह पाठ चौथी कक्षा की किताब में पढ़ाया जाता है, पर समाज की चकाचौंध में अकसर छूट जाता है कि भावनात्मक संबंध ऑक्सीजन की तरह हैं। लगातार 'फंक्शनल' रिश्ते (जहां बस लेन-देन हो) अवसाद, तनाव, और एकाकीपन को बढ़ाते हैं। शेयर मार्केट की भाषा में कहें तो 'इमोशनल डिविडेंड' गिरने लगता है और इनसानी 'निवेशक' धीरे-धीरे हताश हो जाता है।
दिलचस्पी बचाने के पांच मंत्र
1. शारीरिक उपस्थिति का महत्वः महीने में कम से कम एक बार बिना किसी 'कारण' के मिलने जाएँ। डिजिटल मीटिंग काम की है, पर 'अनप्लग्ड' साथ का स्वाद कुछ और होता है।
2. अनुस्मृति के छोटे बीजः पुराने फोटो प्रिंट कर फ्रिज पर लगाएं। हाथ से लिखे नोट्स भेजें। टच का स्पर्श हमेशा स्क्रीन से गहरा होता है।
3. साझा अनुष्ठान बनाएंः चाहे रविवार की दोपहर की खिचड़ी हो या हर पूर्णिमा पर चांद देखना-एक छोटा सा रिवाज रिश्ते का 'रिकरिंग डिपॉजिट' है।
4. डिजिटल डिटॉक्स स्लॉटः परिवार या मित्रों के साथ जब भी हों, फोन 'डिस्टर्ब' मोड में डालें। पांच में से दो मुलाकातें भी यूं हो जाएं तो दिलचस्पी की बैटरी चार्ज रहती है।
5. शब्दों का आदान-प्रदानः 'मुझे तुम पर गर्व है', 'आज तुम्हारी याद आई', 'चलो पुराने गाने सुनते हैं'-ऐसे वाक्य बोनस अंक देते हैं। जरूरी नहीं कि मुद्दा भारी-भरकम हो। भावना हल्की सी हो पर ईमानदार हो।
कल्पना कीजिए, अगर रिश्तों का भी 'यूजर एग्रीमेंट' होता तो कैसा होता
'मैं, फलां-फलां, यह स्वीकार करता/करती हूं कि मैं केवल अपने लाभ के लिए आपको याद करूंगा/करूंगी। अगर दिलचस्पी घटे तो 'अनसब्स्क्राइब' कर दूंगा/दूंगी और शिकायत करने पर 'कस्टमर सपोर्ट' को ई-मेल करूंगा।' यह सुनने में हास्यास्पद लग सकता है, पर व्यवहार में हम अकसर यही तो करते हैं! गुस्सा आए तो ब्लॉक, हंसी आए तो रिएक्ट, उदासी आए तो म्यूट। मानो इंसान नहीं, नोटिफिकेशन हों-जिन्हें स्लाइड करके साइड में किया जा सकता है।
निष्कर्ष: दिलचस्पी का पुनर्जन्म
रिश्ते खेत की मिट्टी जैसे हैं। नीम-हफ्ते पानी दो, बीज पनपेंगे। वरना बंजर हो जाएगा। आधुनिकता की रफ्तार हमें मुट्ठी-भर समय भी नहीं छोड़ती, पर उसी मुट्ठी में कुछ बीजों की जरूरत है। जब अगली बार आप किसी प्रियजन का नंबर डायल करें, सोचें-क्या मैं केवल मदद मांगने जा रहा हूं? अगर हां, तो कॉल से पहले एक साधारण-सा मैसेज भी जोड़ दें-'तुम्हारी हंसी याद आई।' हो सकता है, ऐसे छोटे-से वाक्य से बातचीत का पूरा मौसम बदल जाए।
रिश्तों की दुकान में दिलचस्पी कीमत नहीं, करंसी है। अगर वही खत्म हो जाए, तो सबसे महंगा तोहफा भी खरीदा नहीं जा सकता। इसलिए आज ही थोड़ा निवेश दिलचस्पी में कीजिए। रिटर्न यकीनन इनफ्लेशन-प्रूफ मिलेगा-प्यार, अपनापन, और वह अनकही मुस्कान जो स्क्रीन के इस पार भी महसूस होती है।
कहावत है-'घर वही जहां दिल हो।' पर दिल वहीं टिकता है जहां दिलचस्पी हो। जरूरतें पूरी कीजिए, पर उन्हें प्यार का 'ब्रेक-अप लेटर' बनने मत दीजिए। याद रखिए, रिश्तों का असली चार्जर दिलचस्पी ही है, वरना कनेक्शन 'नो-सर्विस' दिखाने लगता है और तब, डेटा पैक बढ़ाकर भी सिग्नल नहीं आएगा।
(लेखिका, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / मुकुंद