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नई दिल्ली, 10 जून (हि.स.)। दुनिया की जनसंख्या पर आए दिन बहस होती रहती है। कहीं जनसंख्या विस्फोट का डर, तो कहीं जनसंख्या घटने की चिंता, लेकिन संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूएनएफपीए) की स्टेट ऑफ वर्ल्ड पॉपुलेशन 2025 रिपोर्ट एक अलग सच्चाई की ओर इशारा करती है कि असल संकट यह नहीं कि बच्चे ज्यादा हैं या कम, बल्कि यह है कि लोग उतने बच्चे नहीं कर पा रहे जितना वे चाहते हैं। यूएनएफपीए रिपोर्ट इस बात को उजागर करती है कि लाखों व्यक्ति अपने वास्तविक प्रजनन लक्ष्यों को प्राप्त करने में सक्षम नहीं हैं। भारत में तीन में से एक वयस्क महिला अनपेक्षित गर्भधारण का सामना करती है।
यूएनएफपीए की रिपोर्ट कहती है कि असल में फर्टिलिटी क्राइसिस (प्रजनन संकट) जनसंख्या में कमी या वृद्धि नहीं, बल्कि लोगों के अधूरे सपनों का परिणाम है। जब तक हर व्यक्ति को यह स्वतंत्रता और संसाधन नहीं मिलते कि वे तय कर सकें, वे कब और कितने बच्चे चाहते हैं। तब तक प्रजनन संकट बना रहेगा।
यूएनएफपीए रिपोर्ट के अनुसार, भारत की कुल प्रजनन दर अब 2.0 तक आ चुकी है, जो जनसंख्या स्थिरता के लिए आदर्श दर (2.1) के करीब है, लेकिन क्षेत्रीय असमानताएं अब भी बनी हुई हैं।
बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में अब भी प्रजनन दर काफी अधिक है।
जबकि दिल्ली, केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में यह दर प्रतिस्थापन स्तर से नीचे जा चुकी है।
यह अंतर स्वास्थ्य सुविधाओं, शिक्षा, आर्थिक अवसरों और सामाजिक सोच में भारी असमानता को दर्शाता है।
यूगॉव सर्वे 2025 में भारत सहित 14 देशों से 14000 लोगों ने आनलाइन भागीदारी की, इसके मुख्य निष्कर्ष भारत में प्रजनन स्वायत्तता से जुड़ी कई प्रमुख बाधाओं की ओर संकेत करते हैं। आर्थिक असुरक्षा सबसे बड़ी बाधाओं में से एक है। लगभग 10 में से 4 लोगों ने कहा कि आर्थिक सीमाएं उन्हें मनचाहा परिवार बनाने से रोक रही हैं।
नौकरी की असुरक्षा (21 प्रतिशत), आवास की कमी (22 प्रतिशत) और भरोसेमंद चाइल्डकेअर की अनुपलब्धता (18 प्रतिशत) के चलते लोग माता-पिता बनने से हिचकिचा रहे हैं।
खराब सामान्य स्वास्थ्य (15 प्रतिशत), बांझपन (13 प्रतिशत) और गर्भावस्था से जुड़ी स्वास्थ्य सेवाओं तक सीमित पहुंच (14 प्रतिशत) जैसी स्वास्थ्य संबंधी बाधाएं भी तनाव पैदा करती हैं।
बहुत से लोग भविष्य को लेकर बढ़ती चिंता जैसे जलवायु परिवर्तन, राजनीतिक और सामाजिक अस्थिरता के कारण भी बच्चों की योजना नहीं बना पा रहे हैं। 17 प्रतिशत ने बताया कि उन पर उनके साथी या परिवार की ओर से अपेक्षा से अधिक बच्चे पैदा करने का दबाव था।
यूएनएफपीए इंडिया की प्रतिनिधि और भूटान की कंट्री डायरेक्टर एंड्रिया एम. वोजनार ने कहा,
भारत ने 1970 के दशक में प्रति महिला औसतन 5 बच्चों से आज लगभग 2 तक की यात्रा तय की है। इससे मातृ मृत्यु दर में भारी गिरावट आई है, लेकिन सामाजिक असमानताएं अब भी बनी हुई हैं। असल जनसांख्यिकीय लाभ तब मिलेगा जब हर व्यक्ति को अपने प्रजनन फैसले लेने की आज़ादी और संसाधन मिलेंगे। भारत विश्व को दिखा सकता है कि प्रजनन अधिकार और आर्थिक समृद्धि साथ-साथ कैसे चल सकते हैं। रिपोर्ट में आधुनिक चुनौतियों के जटिल चक्र की पहचान की गई है जिसमें बढ़ता अकेलापन, बदलते रिश्ते, उपयुक्त साथी न मिलने की चिंता, प्रजनन से जुड़े सामाजिक कलंक और गहरे जड़ जमाए लैंगिक मानदंड, बच्चों के पालन-पोषण को लेकर बढ़ती अपेक्षाएं, महिलाओं पर असंगत दबाव शामिल हैं।
रिपोर्ट कहती है कि असली चुनौती यह नहीं कि देश की जनसंख्या कितनी होनी चाहिए, बल्कि यह है कि हर व्यक्ति को यह अधिकार और संसाधन मिले कि वह जिम्मेदारी और स्वतंत्रता से तय कर सके कि वह कब, कितने और कैसे बच्चे चाहता है। यही असली प्रजनन न्याय है और यही असली विकास की कुंजी भी।
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हिन्दुस्थान समाचार / विजयालक्ष्मी