ईश्वरीय-स्पर्श और अभिशप्त शिला
अभिशप्त शिला के रचनाकार डॉ. चन्द्रिका प्रसाद दीक्षित।


डॉ. राजेंद्र रंजन चतुर्वेदी

अधिक नहीं, दो दिन पहले की ही बात है। कोलकाता के वरिष्ठ साहित्य मनीषी डॉ. अरुण माहेश्वरी ने अपनी पुस्तक इजराइल-समग्र के लिए लिखी गई भूमिका पढ़ने के लिए भेजी। उसका शीर्षक है-ईश्वरीय-स्पर्श। उसमें माहेश्वरी ने एक अवतरण लिखा है- मार्केस ने कहा था कि चीजों में अपनी खुद की जान होती है, बस आत्मा जगाने की बात है। इजराइल ने अपनी कहानियों के स्पर्श से मजदूर बस्तियों के उसी अहल्या पत्थर को जगाने का काम किया है। जिस स्पर्श से पत्थर बोलने लगे। वही ईश्वरीय-स्पर्श कहलाता है-एक स्फ़ुरित सत्ता वाला स्थिति रूप , जो अनेक प्रकार की सृष्टि-संभावनाओं से भरा होता है। भूमिका पढ़ कर उनको लिखा कि एक बार आपने मिथक को अंधकार कहा था किन्तु अपनी भूमिका में आपने अहल्या की भी चर्चा की है और ईश्वरीय-स्पर्श की भी । और आज ही अहल्या को लेकर लिखा गया बुंदेलखंड के डॉ. चन्द्रिका प्रसाद दीक्षित का खण्ड काव्य मिला है-अभिशप्त शिला ।

इस काव्य को महादेवी वर्मा ने भी पढ़ा था और उन्होंने लिखा है कि अहल्या की कथा नारी जीवन की मार्मिक कथा के साथ एक रूपक कथा भी है, क्योंकि अहल्या शब्द का अर्थ ऐसा भूमि खंड भी है जो अनुर्वर है तथा हल चलाने के उपयुक्त नहीं है। राम के चरण स्पर्श से वह पाषाणी भूमि हरीतिमा में जीवित हो गई। कवि ने अहल्या की कथा की कुछ भिन्न प्रकार से व्याख्या की है, जो चिंतन की विशेष सामग्री देती है। सुधी पाठक उसमें नारी मन का उद्वेलन तथा पाषाणी धरती का प्रकंपन एक साथ अनुभव करेगा। यूरोप में मिथकशास्त्र (मायथोलोजी) एक अनुशासन का रूप बन गया है और उसके बहुत से आयाम हैं। उन सभी के साथ मिथक अपने आप में अभिव्यक्ति कीएक शैली भी है। पौराणिक गाथाओं की इस अभिव्यक्ति शैली और भाषा पर पश्चिम में सबसे पहले मैक्समूलर (1823-1900) का ध्यान गया था। उसने अनुभव किया कि आदिम व्यक्ति ने जिस अर्थ में उस अभिव्यक्ति-भंगिमा का प्रयोग किया था, अगली पीढ़ी ने उसे ठीक उसी अर्थ में ग्रहण नहीं किया।

इस प्रकार पीढ़ियों के क्रम से भाषा में विकार आता चला गया तथा वह मूल अर्थ हम से दूर होता चला गया । भाषाशास्त्री जानते हैं कि शब्द बिंब से बनता है। परिवेश के बदलने पर बिंब का अर्थ भी बदल जाता है। इसीलिए एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी में जाकर शब्द का मूल अर्थ बदल जाता है। मैक्समूलर ने माना कि भाषा और अभिव्यक्ति शैली का पीढ़ियों के क्रम से बहुत गहरा संबंध है। अर्थ-परिवर्तन की इस प्रक्रिया को मैक्समूलर ने मैलेडी ऑफ वर्ड्स अथवाशब्द का विकार बतलाया था । वीरता पौरुष तथा हिंसक पशुओं को पराजित कर देने की सामर्थ्य को उन्होंने हरक्यूलिस या सैमसन का नाम दिया । मैक्समूलर मिथक-तत्व को अनिवार्य मानते हैं।

फिलॉसफी ऑफ माइथोलॉजी, इंट्रोडक्शन टु द साइंस ऑफ रिलिजन' के परिशिष्ट में मैक्समूलर कहते हैं, यदि भाषा विचार के ऊपरी रूप को अभिव्यक्त करने की शक्ति है, तो मिथक तत्व उसकी अन्तर्निहित आवश्यकता है । मिथक-कल्पना वाक् तत्व की भांति मनुष्य की सहज सर्जना शक्ति का ही निदर्शक रूप है। मैक्समूलर के बाद कैसिरर मिथक-तत्व का विश्लेषण करते हैं । उनका कहना है कि आदिम मनुष्य के लिए भाषा के प्रतीक यथार्थ के सूचक ही नहीं थे बल्कि यथार्थ ही थे। वे मानते हैं कि मनुष्य ही एकमात्र प्राणी है जो प्रतीकों का निर्माण करता है। कैसिरर भाषा और मिथक तत्व को एक ही मूल से निकली हुई दो अलग-अलग शाखा मानते हैं। हर्डर मानते थे कि भाषा की उत्पत्ति मिथकीय प्रक्रिया के भीतर से हुई है। मनुष्य के अन्तर्जगत को अभिव्यक्त करने का एक महत्वपूर्ण माध्यम है- मिथक।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने मिथक का विवेचन करते हुए कहा, मिथक वस्तुत: भाषा का पूरक है। सारी भाषा ही इसके बल पर खड़ी है। साहित्य में मिथक अनंत अनुभवों का विश्लेषण है। कलाकार के हृदय में जो मिथकीय सिसृक्षा उदित होती है, वह अवचेतन चित्त की वेगवती शक्ति है। आगे चल कर यही शक्ति पुराणकथा या माइथोलोजी के रूप में विकसित होती है। आधुनिक विचारक मिथक को प्रतीकात्मिका भाषा कहते हैं-मनुष्य ने मिथक तत्व को भुलाया नहीं है। कविता उसका प्रमाण है। निजधरी कथाएं ,चित्र और मूर्ति-शिल्प उसके साक्षी हैं। कार्य-कारण परंपरा की युक्तिसंगत व्यवस्था उस गहरे यथार्थ को प्रकट नहीं कर पाती, जो रात को सोते समय सपने में प्रकट हो जाती है ।

आचार्य हजारी प्रसाद ने अपने मन के अद्भुत भावों की मिथकीय-अभिव्यक्ति का स्पष्टीकरण करते हुए बतलाया है, अन्तर्जगत् के भाव बाह्य-जगत् के पदार्थों के बिम्ब नहीं होते। उन भावों के बिम्ब को अभिव्यंजक शब्दों द्वारा प्रकट करना कठिन होता है, परन्तु करना पड़ता है, दूसरा उपाय नहीं है। उसको भाषा के द्वारा अभिव्यक्त करने के लिए किसी-न-किसी अन्य इन्द्रिय द्वारा गृहीत बिम्ब में उसे अनूदित करना पड़ता है। अमूर्त अनुभूति को किसी-न-किसी प्रकार मूर्त बिम्बों में अनुवाद करना है। रूप को 'मधुर' कहना या सौन्दर्य को लावण्य कहना वस्तुतः एक अमूर्त अनुभूति को स्वादेन्द्रिय द्वारा अनुभूत बिम्ब के माध्यम से गोचर कराने का प्रयास मात्र है। उपरले स्तर के तर्क द्वारा कहा जा सकता है कि रूपगत सुन्दरता को माधुर्य (मिठास ) और लावण्य (नमकीन) कहना बिल्कुल झूठ है, क्योंकि रूप न तो मीठा होता है, न नमकीन। लेकिन फिर भी कहना पड़ता है, क्योंकि अन्तर्जगत् के भावों को बहिर्जगत् की भाषा में व्यक्त करने का यही एकमात्र उपाय है। सच पूछिए तो यही मिथक तत्व है। ऊपर-ऊपर से देखने से यह झूठ है, परन्तु गहराई में देखने पर यह सत्य है ।

धर्मवीर भारती ने कहा था, मिथक कथाएं प्रतीकों और मधुमयी कल्पनाओं के द्वारा हजारों साल से हमारे सांस्कृतिक-मानस को संवेदना प्रदान करने का काम करती हैं। अब उनको उनके उन्हीं प्रतीकार्थ-माध्यम से समझने की आवश्यकता है। बचपन की उस अबोध अवस्था में ही मैं अहल्या के नाम से परिचित हो गया था क्योंकि मेरी मैया सवेरे स्नान करके जिन श्लोकों का उच्चारण करती थीं, उनमें अहल्या, द्रौपदी, कुन्ती, तारा और मन्दोदरी के पवित्र नाम आते थे । जब गोस्वामी तुलसीदास की कवितावली पढ़ने लगा तब अहल्या से मेरी फिर से मुलाकात हो गई। केवट कहता है -गौतम की घरनी ज्यों तरनी तरैगी मेरी,प्रभुसेां निषादु ह्वै कैं बादु ना बढ़ाइहौं। जब वह पत्थर आपके चरण-स्पर्श से नारी बन गई तो यह तो काठ की नाव है- कोमल है, जल खाय रहा है । यदि मेरी नाव भी आपकी चरण-धूलि के स्पर्श से नारी बन गई तो मेरे लिए नई मुसीबत खड़ी हो जाएगी ।

उसके बाद में विन्ध्याचल के उपासियों के साथ तुलसीदास जी ने मजाक किया है- ह्वै हैं शिला सब चन्द्रमुखी । पर्वत की इतनी शिलाएं चन्द्रमुखी बन जाएंगी तो हमारा अकेलापन दूर हो जाएगा । जब पुराण पढ़ने का नम्बर आया तो गौतम ऋषि की कथा भी पढ़ ली । अहल्या के सौन्दर्य पर रामायण तथा पुराणों में विस्तार से वर्णन है और यह भी उल्लेख है कि इन्द्र उससे विवाह करना चाहता था और उसके लिए उसने पृथ्वी-परिक्रमा भी की थी किन्तु अहल्या का विवाह गौतम ऋषि से हुआ ।

राम और लक्ष्मण ऋषि विश्वामित्र के साथ मिथिलापुरी के वन उपवन देखने के लिए निकले तो उन्होंने एक निर्जन स्थान देखा। विश्वामित्र ने बताया, यह स्थान कभी महर्षि गौतम का आश्रम था। वे अपनी पत्नी के साथ यहां रह कर तपस्या कर रहे थे। एक दिन जब गौतम ऋषि स्नान के लिए आश्रम के बाहर गए थे तो उनकी अनुपस्थिति में इन्द्र ने गौतम ऋषि के वेश में आकर अहल्या से प्रणय याचना की। अहल्या ने इन्द्र को पहचान लिया और प्रणय हेतु अपनी स्वीकृति नहीं दी किन्तु इन्द्र ने जबरदस्ती की । गौतम ऋषि अपने आश्रम को वापस आ रहे थे, तो उनकी दृष्टि इन्द्र पर पड़ी जो उन्हीं का वेश धारण किए हुए था। उन्होंने इन्द्र को तो शाप दिया ही, अहल्या को भी शिला हो जाने का शाप दे दिया । अहल्या शिला बन गई ।

मेरे मन में यह प्रश्न आया, अहल्या-शिला कैसे बन गई और फिर से नारी कैसे बनी ? मेरी भुआ ने न जाने मुझे कितनी ही कथाएं सुनाई थीं , किन्तु उसके लिए इन सवालों का कोई महत्व नहीं था । लेकिन मेरे मन में यह सवाल बहुत समय तक घुमड़ता रहा , अभी भी घुमड़ता है। जब लोकवार्ता पर शोध कर रहा था, तो पत्थर बन जाने का मोटिफ (अभिप्राय) मुझे यार होय तौ ऐसौ होय कहानी में मिला। पेड बन जाने का अभिप्राय रायमला कहानी में मिला। मिथक साहित्य में वृन्दा की कथा में भी यह मोटिफ (अभिप्राय) मिला कि वृन्दा ने हरि को शिला बन जाने का शाप दिया और हरि ने वृन्दा को जड़ बन जाने का शाप दिया । वृन्दा तुलसी बनीं और हरि शालिग्राम बन गए ।

जब अभिप्राय-अनुक्रमणिका (मोटिफ इन्डेक्स) के काम को देखा तब समझ में आया कि केवल पत्थर या जड़ बन जाने की बात अकेली नहीं है, एक पुतले (काठ का या चून का) का जीवित हो जाना, काठ पुतर जिउ डारौ !योनि-परिवर्तन : आदमी से शेर बन जाना , नाग से आदमी बन जाना ! प्रेयसी को पक्षी द्वारा संदेश भिजवाना ! फूलों से तुलना अथवा न तुलना! किसी का वेश बना कर भूत, देवता,दानव का आना ! हंस आदि पक्षी की सवारी ! स्वप्न विवाह ! यमदूत का भूल से किसी एक की जगह दूसरे जीव को बुलाने आना, रूप-परिवर्तन ! प्राणों की अन्यत्रस्थिति :दानव आदि के प्राण तोते में होना,देवता के हंगने से वैभव बिखर जाना, जादू की अंगूठी या डंडा ! अरक्षित स्थान से सुरक्षित निकल आना : जैसे जलते हुए अंवा में से बच जाना ! शाप और वरदान,- धूल की चुटकी से महल बन जाना, खीर खाने से गर्भ हो जाना आदि शत-शत अभिप्राय या मोटिफ हैं, जो कथा-साहित्य की अभिव्यक्ति की एक पद्धति हैं ।

लोक कहानियों की जो बुनावट होती है , उसमें कुछ खास-खास कथा तन्तु बार-बार देखे जा सकते हैं । उनमें चमत्कार का तत्व होता है किन्तु यह तो लोकमानस का निसर्ग लक्षण है कि वह लोक से लोकोत्तर की ओर चलता है ! न यह ऐतिहासिक सच है , न भौतिक सच है ! लोकमन की इस प्रवृत्ति को हम सुपरमैन जैसे बहुत से धारावाहिकों में आज भी देखते हैं , जो बिना पंख के ही आसमान में उड़ जाता है, चाहे जहां अन्तर्धान हो जाता है और चाहे जहां प्रकट हो जाता है !इन्हें लोकवार्ता शास्त्री मोटिफ या अभिप्राय कहते हैं और यह लोक-अभिव्यक्ति का एक विधान ही है। अलंकार भी तो एक पद्धति है, लक्षणा और व्यंजना भी तो एक पद्धति है। किन्तु अध्ययन के क्षेत्र में आज एक प्रवृत्ति विकसित हुई है कि जो बात अपनी समझ न आवे उसे नकार दो, कह दो कि यह गप है, बस अब परिश्रम की जरूरत ही नहीं है । पत्थर में संवेदना नहीं होती, पत्थर हो जाना अर्थात्‌ संवेदनाशून्य हो जाना । अहल्या पत्थर बन कर रही, संवेदनाशून्य । अहल्या, द्रौपदी, कुन्ती, तारा और मन्दोदरी के यौन-व्यवहार से आप सभी परिचित ही हैं । अब मेरे मन में जो सवाल उठता रहा है , वह आपके मन में भी हो सकता है कि- ये पवित्र क्यों हैं?

डॉ. चन्द्रिका प्रसाद दीक्षित अपने खंडकाव्य की प्रस्तावना में लिखते हैं,-एक व्यक्ति के भीतर चेतना के विभिन्न स्तर हैं। उसको उच्चतर चिंतनशीलता गौतम, उसी व्यक्ति की अखंड वृत्ति अहल्या एवं उसकी ऐन्द्रिक कर्म शक्ति ही इन्द्र है। इस प्रकार 'अभिशप्त शिला' की अन्तर्वस्त सष्टि के प्रत्येक मानव की चेतना में घटित होने अहल्या एवं उसकी ऐन्द्रिक कर्म शक्ति ही इन्द्र है। इस प्रकार 'अभिशप्त शिला' की अन्तर्वस्तु सृष्टि के प्रत्येक मानव की चेतना में घटित होने वाली विराट कथा है। प्रायः अहल्या, गौतम और इन्द्र को शरीरी व्यक्तियों के रूप में चित्रित किया गया है। वैदिक साहित्य के टीकाकारों ने अहल्या की कथा को रूपक मात्र माना है तथा उस रूपक की अनेक प्रकार से व्याख्या की है। मैंने गौतम को व्यक्त रूप में और इन्द्र को अव्यक्त के रूप में एक ही चेतना के दो रूप बताए हैं। व्यक्त और अव्यक्त विषय एक दूसरे से भिन्न होते हैं किन्तु सत्य तक पहुंचने के लिए दोनों अनिवार्य हैं। एक में छद्म है, दूसरे में कारुणिक सत्य।

वह लिखते हैं, गौतम और इन्द्र दोनों अहल्या पर मुग्ध हैं किन्तु दोनों की मानसिक संघटना में मात्रा भेद है। संज्ञान और निर्विष्ट दशाओं का अन्तरीक्षण विधि से चेतन और अचेतन स्तर पर विश्लेषण किया गया है। अहल्या और गौतम के विश्लेष को कला और नैतिकता का सम्बन्ध विच्छेद कहा गया है। यह विच्छेद समाज और संस्कृति के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है। कला की महत्ता व्यावसायिकता से परे है। राम ने कलाओं के आश्रय से मनोजगत का उन्नयन तथा काम चेतना का परिष्करण किया है। पौराणिक प्रसंगों को मनोविज्ञान और कलात्मक मूल्यों से मुक्ति देकर अपने युग का धर्म पूरा किया है। चेतना के त्रिविध रूपों को ज्योतिर्मय एक ही संवित को भिन्न-भिन्न रूपों में गौतम, इन्द्र, अहल्या कहा गया है। वस्तुतः यह तीनों पृथक होकर भी एक ही तत्व के प्रतिभासित विवर्त हैं। चेतना का कार्य ज्ञानेन्द्रियों और कमेन्द्रियों के संतुलन से ही संभव है। ज्ञान, वृत्ति और कर्म का यह रूपक भी संकेतित है।

अभिशप्त शिला की अहल्या राम की वंदना करना भूल जाती है, वह नारियों पर किए जा रहे अत्याचार की प्रतिक्रिया व्यक्त करती है-

विश्वमित्र के साथ राम जबजनकपुरी की यात्रा कर रहे थे, तभी-

यह कैसी पाषाणी-प्रतिमा पड़ी हुई है ?

अड़ी हुई यह, शिलाखण्ड सी गढ़ हुई है विश्वमित्र ने कहा-

'राम, यह विस्मृत है इतिहास समय का ।

सम्वेदन के स्पन्दन से शून्य समय की यह वाणी है

यही ज्ञान-गौतमी अहल्या अभिशापित, युग-कल्याणी है

पितृ-रूप में इसमें तुम, वात्सल्य-सृष्टि को पुनः जगाओं

जिससे यह संस्पर्श तुम्हारा पाकर जागे,

जड़ीभूत सम्वेदन इसकी जड़ता त्यागे, इ

समें भी मातृत्व उदय हो भाव कोष जीवन अक्षय हो।

आर्य राम का अर्थ-बोध जागा, तब उस क्षण

दृढ़ प्रतिज्ञ वाणी में बोले- 'नारी का अस्तित्व न संज्ञाहीन रहेगा,

अब से यह वर्यस्व न धर्म-विहीन रहेगा।'

आन्दोलित हो उठी भाव की तरल तरङ्ग

प्रत्यभिज्ञ हो उठी अहल्या-उसे लगा मैं भी नारी थी

संचेतन से ही हारी थी

आज वही सम्वेदन देकर, तुमने मुझको पुनः जगाया,

तुम विराट हो पिता हमारे,

तुममें मैंने अपना खोया शैशव पाया और,

मुझे हो मुक्ति-मुक्ति-भोग्या जीवन से

अथवा यह सान्निध्य मुझे गौतम का,

फिर वापस लौटा दो,मेरे मातृ-स्वप्न को चिर-साकार बना दो।

अभिशप्त शिला खंडकाव्य ने साहित्यजगत का ध्यान आकर्षित किया है। उस पर महीयशी महादेवी वर्मा, राष्ट्रकवि पंडित सोहनलाल द्विवेदी, डॉ. रामविलास शर्मा, डॉ. नामवर सिंह, डॉ. जगदीश गुप्त, डॉ. लक्ष्मीकांत वर्मा जैसे बड़े साहित्य मनीषियों की सम्मतियां हैं। डॉ. ललित आधुनिक युग के प्रतिनिधि रचनाकारों की अग्रिम पंक्ति के कवि हैं।

(लेखक, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र नई दिल्ली के तत्वावधान में भारत लोक और लोक संस्कृति परियोजना से संबद्ध हैं।)

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हिन्दुस्थान समाचार / मुकुंद