फैसले से 5743 दिन बाद दाखिल राज्य सरकार की पुनर्विचार अर्जी खारिज
--सुप्रीम कोर्ट ने भी दाखिले में देरी के कारण खारिज की थी सरकार की एसएलपी --सुप्रीम कोर्ट से हारी सरकार ने हाईकोर्ट में आदेश पालन न कर दायर की थी पुनर्विचार अर्जी प्रयागराज, 18 दिसम्बर (हि.स.)। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा है कि सरकारी विभागों
इलाहाबाद हाईकाेर्ट


--सुप्रीम कोर्ट ने भी दाखिले में देरी के कारण खारिज की थी सरकार की एसएलपी

--सुप्रीम कोर्ट से हारी सरकार ने हाईकोर्ट में आदेश पालन न कर दायर की थी पुनर्विचार अर्जी

प्रयागराज, 18 दिसम्बर (हि.स.)। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा है कि सरकारी विभागों को अपने कार्यों में देरी नहीं बरतनी चाहिए। खासकर तब, जब बात कोर्ट में समय पर याचिका दायर करने की हो। कानून निजी व्यक्तियों और सरकारी संस्थाओं के साथ समान व्यवहार करता है और देरी के लिए राज्य को अनुचित लाभ नहीं दिया जाना चाहिए। न्यायमूर्ति नीरज तिवारी तथा न्यायमूर्ति विवेक कुमार सिंह की खंडपीठ ने राज्य सरकार की फैसले से 5743 दिन के बाद दाखिल पुनर्विचार अर्जी खारिज करते हुए यह टिप्पणी की है।

यह प्रकरण भू-अर्जन निरसन अधिनियम 1999 से जुड़ा है। हाईकोर्ट ने याचिका स्वीकार करते हुए 2009 में राजस्व अभिलेख से राज्य सरकार का नाम हटाकर याची का नाम दर्ज करने का आदेश दिया था। जिसके खिलाफ राज्य सरकार ने 1633 दिन की देरी से सुप्रीम कोर्ट में एसएलपी दायर की। जिसे 3 मई 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दी।

सुप्रीम कोर्ट आदेश के बाद याची ने सरकार से आदेश का पालन करने की मांग की तो राजस्व विभाग ने कानूनी सलाह लेकर 2009 के फैसले पर पुनर्विचार करने की अर्जी दी थी।

सुप्रीम कोर्ट के आदेश की तारीख से हाईकोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर करने में भी लगभग 489 दिनों की देरी की गई। न्यायालय ने कहा, “सरकारी एजेंसियों का विशेष कर्तव्य है कि वे अपने कार्यों को दक्षता और प्रतिबद्धता के साथ करें। देरी माफी एक अपवाद है और इसका उपयोग सरकारी विभागों के लिए लाभ के रूप में नहीं किया जाना चाहिए। जब देरी की बात आती है, तो यह मायने नहीं रखता कि याचिकाकर्ता निजी पार्टी है या राज्य या भारत संघ। यह कोई वैध कारण नहीं है कि प्रक्रिया में देरी के कारण याचिका कई वर्षों तक लम्बित रही।

मुकदमे से जुड़े संक्षिप्त तथ्य यह है कि वर्ष 2009 में बरेली निवासी मोहन लाल ने याचिका दायर कर राज्य का नाम राजस्व रिकॉर्ड से हटाने और याची का नाम दर्ज करने का निर्देश दिए जाने की मांग की थी। कोर्ट ने दोनों पक्षों को सुनने के बाद, 13 नवम्बर 2009 को याचिका मंजूर करते हुए कहा था कि याची अर्बन लैंड (सीलिंग एंड रेगुलेशन) री-पील एक्ट, 1999 के तहत लाभ का हकदार है और उसकी भूमि को खाली भूमि नहीं माना जाएगा। कागज पर कब्जा प्रतीकात्मक कब्जा है। याची की भूमि को निरस्त अधिनियम के तहत खाली भूमि घोषित नहीं माना जाएगा।

प्रदेश सरकार ने हाईकोर्ट के निर्णय के खिलाफ विशेष अनुमति याचिका दायर की थी, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा था कि राज्य सरकार ने देरी के लिए केवल यह कारण बताया था कि मामला वकील को सौंप दिया गया था, जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। कोर्ट ने कहा, हाईकोर्ट के 13 नवम्बर 2009 के निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में 1633 दिनों की देरी की गई और सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद पुनर्विचार याचिका 26 जुलाई 2025 को दायर की गई। इसमें भी देरी की गई। इसमें देरी के लिए दिए गए कारण संतोषजनक नहीं हैं।

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हिन्दुस्थान समाचार / रामानंद पांडे