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-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
डिजिटल क्रांति ने कार्य दिवस के परंपरागत समय सीमा को बदल कर रख दिया है। कहने को तो छह या सात घंटे का कार्य दिवस होता है पर वर्चुअल युग में कर्मचारी 24 गुणा 7 के दौर में आ गया है। इससे कार्मिकों की मानसिकता और सामाजिक-इकोनॉमिक ताने-बाने को भी प्रभावित किया है। एक समय था जब शीर्ष या पहली दूसरी कतार के अधिकारियों की जिम्मेदारी अधिक होती थी और उनके लिए समय सीमा नहीं होती थी पर अब तो वर्चुअल सुविधाओं के चलते दिन हो या रात, रविवार हो या शनिवार कभी भी कहीं भी एक मैसेज मात्र से आपको एक्टिव होकर कैमरे के सामने आना पड़ता है।
दरअसल, कोरोना काल ने यह परिवर्तन दिया है। भारत सहित दुनिया के देशों में अभी भी कार्मिकों के लिए कार्य दिवस पांच या छह दिवस के हैं तो कार्यसमय भी मानने को तो सुबह 9.30 से सायं बजे 6 या दूसरे शब्दों में औसतन लगभग सात घंटे का है पर डिजिटल क्रान्ति ने सबकुछ बदल कर रख दिया है। देखा जाए तो अब असीमित कार्य दिवस का दौर आ गया है। वास्तविकता तो यह है कि डिजिटल डिवाइसों के उपयोग के बाद से कमोबेश कार्यदिवस 24 गुणा 7 हो गये हैं तो कार्य समय भी तय समय सीमा के बंधन से मुक्त हो गया है। माइक्रोसॉफ्ट द्वारा कराये गये वर्क ट्रेंड इंडेक्स स्पेशल रिपोर्ट 2025 में यह खुलासा हो गया है कि अब कार्मिक चाहे वह किसी भी स्तर का हो, उसके लिए चाहे निजी क्षेत्र में हो या सरकारी क्षेत्र में तय समय सीमा बीते जमाने की बात हो गई है। ई-मेल, चैट, वर्चुअल या हाईब्रिड मीटिंग्स, सोशल मीडिया संदेश आदि को समग्र रुप से देखने से अब कार्मिक 24 घंटे का कार्मिक हो गया है।
वर्क ट्रेंड इंडेक्स स्पेशल रिपोर्ट के अनुसार सुबह छह बजे से ही व्यक्ति अपनी ई-मेल टटोलने लगता है तो सर्वाधिक प्रोडक्टिविटि का समय 11 बजे के लगभग में काम के स्थान पर ई-मेल का प्रेशर 54 प्रतिशत तक बढ़ जाता है सायं तीन बजे बाद ई-मेल, चैट या अन्य संदेशों की आवक कम होने लगती है। वैश्विक औसत की बात की जाये तो 100 से अधिक ई-मेल से दो-चार होना पड़ता है कार्मिक को। हर दो मिनट में मेल, चैट या अन्य संदेश कार्मिक के कार्य में बाधा उत्पन्न करता है। इसका कारण यह होता है कि उसे कॉल, ई-मेल या संदेश चेक करने या उससे दो-चार होना ही पड़ता है।
हालात यह है कि रात को भी ई-मेल या संदेश का सिलसिला जारी रहने से अब कार्यालयीय वातावरण से दूर परिवार के व्यैयक्तिक क्षण तो कल्पना की बात होती जा रही है।
डिजिटल क्रांति के चलते मीटिंग्स खासतौर से वर्चुअल या हाईब्रिड मीटिंग्स सुविधाजनक होने के साथ ही
कार्मिकों के तनाव का कारण भी बनती जा रही है। हालांकि वैश्विक ट्रेंड के अनुसार मंगलवार को सर्वाधिक मीटिंग्स होती है इनमें खासतौर से एडहॉक मीटिंग्स अधिक होती है तो शुक्रवार को अपेक्षाकृत मीटिंग्स का दबाव कम होता है। सबसे खास बात यह कि औसतन 10 में से एक मिटिंग तो बिना किसी पूर्व सूचना के अचानक तय होती है। एक और खास यह कि वर्चुअल मीटिंग्स सुविधाजनक होने और अपना संदेश संबंधित सभी तक पहुंचाने का बेहतरीन माध्यम होने के बावजूद यह तनाव का कारण तो बनता ही है इसके साथ ही गुणवत्ता पर भी प्रश्न लगाये जाने लगे हैं। इसको इस तरह से समझा जा सकता है कि दस में से एक मीटिंग लास्ट टाइम बुक की जाती है तो मीटिंग्स में प्रस्तुत होने वाले पॉवर प्वाइंट प्रजेंटेशन में मीटिंग के दस मिनट पहले तक आंशिक बदलाव या अपडेशन होता है। यह कोई किसी एक पक्ष यानी सरकारी या गैर सरकारी प्रतिष्ठान की बात या किसी देश विशेष की बात ना होकर वैश्विक वास्तविकता है।
विशेषज्ञों की मानें तो अंतिम समय तक प्रजेंटेशन में बदलाव का मतलब ही यह है कि गुणवत्ता कहीं ना कही प्रभावित हो रही है। वैश्विक आंकड़े तो यही कहते हैं कि अंतिम समय में पीपीटी में अपडेशन या संशोधन में 122 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी देखी जा रही है। वर्चुअल मीटिंग का सिलसिला दरअसल कोरोना महामारी के दौर से अधिक सामने आया है और इसे समय और धन बचाने में सहायक माना जाता है पर मीटिंग्स के दौर जिस तरह से बढ़ने लगे हैं उससे कार्मिक सूचनाएं संग्रहित करने और उसमें अपने बचाव के उपाय खोजने में ही अपनी अधिकांश कार्यक्षमता व्यय कर देता है और परिणाम स्वरुप कार्य में गुणवत्ता और उत्पादकता में कमी आना स्वाभाविक माना जाने लगा है।
माइक्रोसॉफ्ट की हालिया रिपोर्ट से यह साफ हो गया है कि डिजिटल युग को देखते हुए अब कार्मिकों के कार्यदिवस को नए सिरे से री-डिजाइन करने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी है। इसका प्रमुख कारण कार्मिकों शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ना और सामाजिकता और वैयक्तितता पर विपरीत प्रभाव पड़ना प्रमुख हो जाता है। समय-बेसमय मोबाइल या इसी तरह की डिवाइस पर अंगुलियां चलाने से प्रभावित हो रहे हैं। काम का दबाव, सूचनाओं के संग्रहण में ही समय जाया होने, वर्चुअल मीटिंग्स में सार्वजनिक रुप से जलालत की संभावना, आंखों में सूखापन और सामाजिक व व्यक्तिगत संबंध बाधित होना आम होता जा रहा है। इसका साइड इफेक्ट संत्रास, कुंठा, तनाव, डिप्रेशन आदि के रुप में सामने आने लगा है। इसके समाधान के लिए हालांकि विशेषज्ञों ने फ्रंटियर फर्म की आवश्यकता प्रतिपादित की है। इसमें आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस के माध्यम से विश्लेषण की बात की जाने लगी है। पर समय की मांग और आवश्यकता यह महसूस की जाने लगी है कि वर्क कल्चर को रिडिजाइन किया जाएं। अन्यथा देर-सबेर इसके नकारात्मक प्रभावों से बचना मुश्किल हो जाएगा।
दरअसल, यह अपने आपमें गंभीर समस्या हो गई है। इसका समाधान हर स्तर पर खोजना होगा। यह कोई कार्यालयीय समस्या, सामाजिक समस्या, मनोवैज्ञानिक समस्या या शारीरिक मानसिक समस्या ना होकर पूरे ताने-बाने को ही प्रभावित करने वाली समस्या है। ऐसे में विशेषज्ञों, गैर-सरकारी संगठनों, मनोविज्ञानियों के साथ ही मानव संसाधन विशेषज्ञों और नियोक्ताओं को भी इस समस्या का समाधान खोजना होगा।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / संजीव पाश