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--घरेलू हिंसा एक्ट मामले में पति की अपनी बच्ची का डीएनए टेस्ट कराने की मांग खारिज
प्रयागराज, 26 नवम्बर (हि.स.)। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने एक आदेश में कहा कि किसी बच्चे के पितृत्व का निर्धारण करने के लिए डीएनए परीक्षण को ’नियमित तरीके’ नहीं किया जा सकता।
कोर्ट ने कहा कि ऐसा इसलिए निर्देशित नहीं किया जा सकता है क्योंकि कोई पक्ष कानूनी कार्यवाही के दौरान माता-पिता के सम्बंध में विवाद करता है। न्यायमूर्ति चवन प्रकाश प्रकाश की पीठ ने कहा कि डीएनए परीक्षण के ऐसे आदेश केवल विशिष्ट परिस्थितियों में ही पारित किए जा सकते हैं, जहां प्रासंगिक अवधि के दौरान पक्षों के बीच “सहवास की कोई सम्भावना“ साबित नहीं होती है।
हाईकोर्ट ने इसके साथ ही घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम (डीवी एक्ट) से जुड़े मामले में पति की याचिका खारिज कर दी। अदालत वाराणसी के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश द्वारा पारित आदेश के खिलाफ पति की पुनरीक्षण याचिका पर विचार कर रही थी, जिन्होंने डीएनए परीक्षण के लिए किसी भी आदेश से इनकार करने वाले विशेष मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेश के खिलाफ पति की अपील को खारिज कर दिया था।
यह मामला पत्नी (विपक्षी संख्या 2) द्वारा घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12 के तहत दायर एक शिकायत से संबंधित था। पति ने दावा किया कि हालांकि उसकी शादी अप्रैल 2008 में विपक्षी से हुई थी, लेकिन वह अपने ससुराल में केवल एक सप्ताह ही रही। उनका कहना था कि उनकी पत्नी स्नातक हैं और एक इंटर कॉलेज में शिक्षिका है तथा वह उनके साथ नहीं रहना चाहतीं, क्योंकि वह एक “अशिक्षित ग्रामीण“ है।
उसका तर्क था कि दिसम्बर 2012 में जन्मी बच्ची उनकी जैविक बेटी नहीं थी, क्योंकि उनकी पत्नी मई 2011 से अपने माता-पिता के घर में रह रही थी। इन आरोपों के आधार पर उन्होंने बच्ची के डीएनए परीक्षण के लिए आवेदन दिया, जिसे ट्रायल कोर्ट ने खारिज कर दिया था। हाईकोर्ट ने उनकी पुनरीक्षण याचिका को भी खारिज कर दिया। साक्ष्य अधिनियम की धारा 112 का उल्लेख किया गया, जिसमें कहा गया है कि वैध विवाह के जारी रहने के दौरान बच्चे का जन्म वैधता का “निर्णायक प्रमाण“ है।
जज ने कहा कि वैध विवाह के अस्तित्व के दौरान पैदा हुए बच्चे की वैधता के पक्ष में एक क्रमिक धारणा स्थापित होती है और प्रदान की गई धारणा एक कानूनी मान्यता है कि पति पैदा हुए बच्चे का पिता है।
पीठ ने स्पष्ट किया कि यह अनुमान तभी हटाया जा सकता है जब यह दर्शाया जा सके कि जब बच्चा पैदा हो सकता था, तब दोनों पक्षों की एक-दूसरे तक पहुंच नहीं थी। न्यायालय ने कहा कि ’गैर-पहुंच’ का तात्पर्य न केवल सहवास की अनुपस्थिति है, बल्कि पक्षों के एक साथ रहने के अवसर का पूर्ण अभाव भी है।
न्यायालय ने कहा कि वर्तमान मामले में याची पति रामराज पटेल ने केवल यह कहा है कि उसकी पत्नी कुछ दिनों के लिए वैवाहिक घर में रही थी और बच्चा उसका जैविक बच्चा नहीं है। कोर्ट ने कहा कि निचली अदालतों ने विशिष्ट निष्कर्ष दिए हैं और उपरोक्त आदेश पारित करने में कोई अवैधता नहीं है। कोर्ट ने याची पति की आपराधिक रिवीजन को खारिज कर दिया।
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हिन्दुस्थान समाचार / रामानंद पांडे