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पणजी, 23 नवंबर (हि.स.) भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में आज यहां गैर फीचर फिल्म श्रृंखला में फिल्म ‘चम्बल' दिखाई गई जिसमें मध्य प्रदेश के मुरैना, भिंड, श्योपुर, ग्वालियर एवं दतिया जिलों तक फैले इस क्षेत्र में बंदूक की धमक में धड़कते समाज में परंपरा, प्रतिष्ठा और वर्तमान का टकराव का चित्रण किया गया है।
युवा निर्देशक अनहद मिश्रा की इस 33 मिनट की गैर फीचर फिल्म का भारतीय पैनोरमा के अंतर्गत आज यहां प्रदर्शन किया गया। यह फिल्म समकालीन भारत को समझने के लिए अपरिहार्य है।
युवा फिल्मकार के अनुसार ‘चम्बल' केवल फिल्म नहीं, उस भू-दृश्य की सामाजिक आत्मकथा है जहाँ इतिहास, भय और गौरव एक साथ साँस लेते हैं। कभी डकैतों की दास्तानों से पहचाने जाने वाले चम्बल क्षेत्र के शिवपुरी, भिंड, मुरैना, दतिया, ग्वालियर और श्योपुर में बंदूक अब भी शक्ति, सम्मान और प्रभाव का प्रतीक बनी हुई है।
निर्देशक अनहद मिश्रा ने इस फिल्म में उस जटिल संस्कृति की परत-दर-परत खोल कर झांकने की कोशिश की है जहाँ शस्त्र पूजा से लेकर शादियों और राजनीति तक, बंदूक सामाजिक प्रतिष्ठा की स्थायी मुद्रा बन चुकी है।
फिल्म ‘चम्बल' को महज अपराध-प्रदेश के रूप में नहीं, बल्कि एक जीवित स्मृति-परंपरा के तौर पर देखती है- जहाँ पीढ़ियों पुरानी दुश्मनियाँ, रक्त-स्मृतियाँ और ‘इज़्ज़त’ का आग्रह आज भी सामाजिक आचरण को दिशा देता है। यहां आधुनिक कानून और राज्य की उपस्थिति के समानांतर परंपरा का एक स्वतंत्र ‘कोड’ चलता है- जिसमें हथियार सिर्फ हिंसा नहीं, बल्कि सामाजिक वैधता का संकेतक है।
यह वही भूगोल है जिसे प्रेमचंद, फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ और समकालीन समाज शास्त्रीय लेखन में सत्ता-समाज-हिंसा के त्रिकोण के रूप में पढ़ा गया है और जिसकी सिनेमाई स्मृति बैंडिट क्वीन जैसी कृतियों में उभरती रही है। ‘चम्बल' इन पूर्ववर्ती संदर्भों के साथ संवाद करते हुए आज के यथार्थ में एक नई, सूक्ष्म और संवेदनशील दृष्टि जोड़ती है।
अनहद मिश्रा की सिनेमैटोग्राफी चम्बल की खुरदरी सुंदरता को सजीव कर देती है- झाड़ियाँ, कच्चे रास्ते, धूल की परतें और हथियारों की चमक के बीच मनुष्य की असुरक्षा और स्वाभिमान की अजीब जुगलबंदी। कैमरा न तो अभियोग करता है, न ही महिमामंडन- वह बस साक्ष्य बनता है। स्थानीय लोगों की आवाज़ें, उनकी स्वीकारोक्तियाँ और उनके भीतर पलती पीढ़िगत मान्यताएँ एक ऐसे आईने में बदलती हैं जो आज के भारत में अपराध, पहचान और परंपरा के प्रश्नों को तीखेपन के साथ सामने रखता है।
अनहद मिश्रा कहते हैं कि आज जब संगठित अपराध, चुनावी राजनीति में शक्ति-प्रदर्शन और सोशल मीडिया के मंचों पर हथियारों का प्रदर्शन ‘स्टेटस’ का नया रूप ले रहा है, ‘चम्बल’ आश्चर्यजनक रूप से प्रासंगिक हो उठती है। यह फिल्म सवाल करती है- क्या कानून से परे चलती परंपरा को बदला जा सकता है, या वह हमारे सामूहिक अवचेतन का स्थायी हिस्सा बन चुकी है?
संगीतकार निनाद परब के सधे हुए संगीत, संपादन की संयमित लय और कथा-विन्यास की कठोर ईमानदारी ‘चम्बल' को एक विचारोत्तेजक अनुभव में ढालते हैं। यह फिल्म देखने के बाद दर्शक सिर्फ कहानी नहीं देखता- वह अपने समय, अपने समाज और अपने भीतर बसे भय-गर्व के द्वंद्व को भी पहचानता है।
‘चम्बल' एक ऐसी सिनेमाई कृति जो बंदूक की आवाज़ में छिपे समाज के प्रश्नों को स्पष्ट, साहसी और सौंदर्यपूर्ण ढंग से उद्घाटित करती है।
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हिन्दुस्थान समाचार / सचिन बुधौलिया