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डाॅ विनाेद कुमार पाेखरियाल
देहरादून, 31 अक्टूबर (हि.स.)। कुमांऊ की ऐतिहासिक व आध्यात्मिक पहचान के साथ बागनाथ मंदिर इतिहास का भी साक्षी है। राष्ट्रीय धरोहर का यह मंदिर न सिर्फ इतिहास बल्कि राजाओं के ठाठ-बाट, मालूशाही की गाथा, अध्यात्म और हिमालय की संस्कृति को गहराई से महसूस करवाता है। मंदिर में स्थापित 8वीं-9वीं व 11वीं-12वीं शताब्दी की मूर्तियां बहुत कुछ कहती हैं। एक बार इस मंदिर के दर्शन और इसके बारे में जानने से कई अनछुए पहलु भी सामने आ जाते हैं।
पहले बात करते हैं बागनाथ मंदिर की। यह मंदिर पुरातत्व विभाग के संरक्षण में है। देश की ऐतिहासिक धरोहरों में शामिल बागनाथ मंदिर प्राचीन इतिहास का जीवंत उदाहरण है। बागनाथ (व्याघ्रेश्वर) मंदिर का जीर्णोद्धार 1602 ई में लक्ष्मीचंद राजा ने करवाया था। मंदिर की जलेरी काफी फंची है लेकिन मंदिर के गर्भगृह में शिवलिंग आकार में छोटा है। इतिहास के पन्नों में उल्लेख मिलता है कि लक्ष्मीचंद को तंत्र और मंत्र की गहरी आस्था थी और यही वजह रही कि उन्होंने बागेश्वर मंदिर के साथ ही वाणेश्वर मंदिर का भी निर्माण करवाया।
बागनाथ मंदिर समूह में स्थापित मूर्तियां 7वीं-8वी शती से लेकर 11वींे-12वीं शती की है। मंदिर में चतुर्भुज भगवान विष्णु, चतुर्भुज पार्वती, द्विभुज गणेश, सूर्य की मूर्तियां स्थापित है। मंदिर के पश्चिम में चुतुर्मुखी शिवलिंग और एक एकमुखी शिवलिंग भी स्थापित है। इसी के पास कालभैरव का मंदिर स्थापित है और भले ही यह मंदिर नया बना हो लेकिन मूर्ति स्थापित मूर्तियां 9वीं शताब्दी की हैं। भैरवनाथ भी यहां लिंग रूप में स्थापित है। मंदिर परिसर में दो हाथ ऊंची पद्मासनस्थ पाषाण मूर्तिंया भूमि स्पर्श मुद्रा में हैं। इन्हीं मूर्तियां के आधार पर कुछ विद्वानों ने इन्हें बौद्ध मूर्तियां मानकर यहां सातवीं-नवीं में बौद्ध धर्म का प्रभाव भी बताया और बागेश्वर को भोट द्वार की संज्ञा दी।
बागेश्वर के नाम और रहस्य
इस मंदिर के द्वार पर स्थित एक पत्थर में कत्यूरी राजाओं की आठ पीढ़ियों की वंशावली खुदी है। चंडीश (प्राचनी चरित्र कोष के अनुसार चंडीश रुद्रगणों में एक है)। शास्त्रों में उल्लेख है कि दक्ष यज्ञ विध्वंश में इसने पूषन ऋषितत्व को बांधा था, इसी लिए इसे चंडेश कहा गया। धार्मिक ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि चंडेश ने शिव के रहने के लिए यहां पर वाराणसी क्षेत्र बनाया। शिव-पार्वती यहां आए और यहीं वास करने लगे। चंडीश ने इस स्थल का नाम वाक्-ईश्वर रखा और बाद में यही शब्द बागेश्वर हो गया। इसे पुराणों में अग्नितीर्थ भी कहा गया है।
गाय बनी पार्वती और बाघ बने शंकर
व्याघ्रेश्वर नाम से बागेश्व नाम की उत्पति हुई, इसके बहुमत है। मानसखंड पुराण में एक कथा आई है। उसके अनुसार मार्कण्डेय ऋषि का यहां तपस्थल था। सूरय यहां से जब आगे बढ़ने लगी तो उन्हें मार्कण्डेय ऋषि के आश्रम बहने की चिंता होने लगी तब वे मार्कण्डेय तप में थे और यदी सरसू आए बढ़ती तो आश्रम के साथ मार्कण्डेय ऋषि भी बह जाते। ऐसे में पार्वती ने गाय का रूप लिया और शिव ने बाघ का रूप धारण किया। गाय पर हमले का विचार कर मार्कण्डेय ऋषि गाय को बचाने आश्रम छोड़ गाय के पीछे भागे तो सरयू सर्र से आगे बढ़ गई। तब चंडीश ने शिव-पार्वती से अग्नितीर्थ को उत्तर वाराणसी बनाने के लिए व्याघ्रेश्व नाम धारण कर यहीं रहने का आग्रह किया और भगवान शिव यहां स्वयंभू रूप में प्रकट हुए और सदा के लिए बागनाथ शिवलिंग में प्रतिष्ठित हो गए।
बागेश्वर का प्रसिद्ध उत्तरायणी मेला
ऋग्वेद (110-75) में उल्लेख है कि जो श्वेत व कृष्ण दो नदियों के मिलन स्थल पर स्नान करते हैं, वे स्वर्ग को प्राप्त करते हैं। कुमांऊ में प्रचलित है, गंगा नाणी वागेसर, देवता देखण जागेसर। सूर्य के मकर राशि में प्रवेश पर जनवरी माह में बागेश्वर में उत्तरायणी मेला आयोजित किया जाता है। इस मेले को घुघतिया फूल मेला भी कहा जाता है। माघ मासा विष्णु व सूर्य की पूजा का माह माना जाता हैं। बागनाथ मंदिर में वैष्णवी मूर्तिं की उपस्थिति से यह स्थल को वैष्णव का भी केंद्र था, उसके बाद यह नाथ-सिद्ध में शैव पम्परा की ओर बढ़ा। यमुनादत्त वैष्णव अशोक की मान्यता है कि यहां युवन व यूनानी भी पहुंचे थे। मालूशाही लोकगाथा में बागनाथ का कामुक चित्रण इसके संकेत देता है।
उत्तरायण मेले में प्रेमी-प्रेमिकाओं का होता था स्वयंवर
उत्तरायणी मेले में यहां प्रेमी-प्रेमिकाएं, बिधुर और विधवाएं जीवन साथी का चयन कर लेती थी, प्राचीन यूनानी संस्कृति में यह प्रचलन रहा है। इस प्रकार के विवाह को संयोगिता स्वयंवरण के साथ अपहरण विवाह भी कहा जाता था। उत्तराखंड में यह परंपरा प्राचीन समय में यमुनापुल जौनसार, नैखरी, चंद्रवदनी, मंडनेश्वर, सल्ट क्षेत्र में अधिक प्रचलित थी। राठ क्षेत्र के बिंसर में दो दिवसीय मेले में इस प्रकार के विवाहों का उल्लेख मिलता है। डॉ शिव प्रसाद नैथानी की पुस्तक, उत्तराखंड का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक भूगोल, देवकी नंदन की पुस्तक गौरवशाली उत्तराखंड समेत अन्य पुस्तकों भी इसका उल्लेख किया गया है।
इस मंदिर के संबंध में बागेश्वर की नवनियुक्त जिलाधिकारी आंकाक्षा ने कहा कि बागनाथ के साथ ही बागेश्वर के मंदिर-मठ को हर हाल में संरक्षित किया जाएगा।
हिन्दुस्थान समाचार / विनोद पोखरियाल