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बूढ़ी दीपावली (01 नवम्बर) पर विशेष
डॉ. श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट
पर्वतीय लोगों की असली दीपावली इगास पर्व ही है, जिसे बूढ़ी दीपावली के रूप में मनाया जाता है। यह दीपोत्सव के ठीक ग्यारह दिनों बाद मनाया जाता है। उत्तराखंड व हिमाचल में रह रहे लोगों को छोड़ कर शायद ही किसी ने इगास यानी बूढ़ी दीपावली के बारे में सुना होगा, पर्वतीय मूल के अब के बच्चों को भी बूढ़ी दीपावली के बारे में पता नहीं है कि यह कोई त्यौहार है।
दीपोत्सव को इतनी देर से मनाने के दो कारण हैं- पहला और मुख्य कारण भगवान श्रीराम के अयोध्या वापस आने की खबर सूदूर पहाड़ी निवासियों को ग्यारह दिनों बाद मिली और उन्होंने उस दिन को ही दीपोत्सव के रूप में हर्षोल्लास से मनाने का निश्चय किया। बाद में छोटी दीपावली से लेकर गोवर्धन पूजा तक सबको मनाया, लेकिन ग्यारह दिन बाद की उस दीवाली को मनाना नहीं छोड़ा। पहाड़ों में इस दिन लोग दीये जलाते हैं, गौ पूजन करते हैं, अपने ईष्ट और कुलदेवी-कुलदेवता की पूजा करते हैं, नयी उड़द की दाल के पकौड़े बनाते हैं और गहत की दाल के स्वांले (दाल से भरी पूडी़)।
दीपावली और इगास की शाम को सूर्यास्त होते ही औजी हर घर के द्वार पर ढोल दमाऊ के साथ बडई (एक तरह की वाद्य यंत्र) बजाते हैं फिर लोग पूजा शुरू करते हैं, पूजा समाप्ति के बाद सब लोग ढोल दमाऊ के साथ कुलदेवी या देवता के मंदिर जाते हैं वहां पर मंडाण (पहाड़ी नृत्य) नाचते हैं, चीड़ की राल और बेल से बने भैला (एक तरह की मशाल) खेलते हैं, रात के बारह बजते ही सब घरों से इकट्ठा किया गया सतनाजा (सात अनाज) गांव की चारों दिशा की सीमाओं पर रखते हैं। इस सीमा को दिशाबंधनी कहा जाता है, इससे बाहर लोग अपना घर नहीं बनाते। ये सतनाजा मां काली को भेंट होता है।
इगास मनाने का दूसरा कारण है- गढ़वाल नरेश महिपति शाह के सेनापति वीर माधोसिंह, गढ़वाल तिब्बत युद्ध में गढ़वाल सेना का नेतृत्व कर रहे थे। गढ़वाल सेना युद्ध जीत चुकी थी लेकिन माधोसिंह सेना की एक छोटी टुकड़ी के साथ मुख्य सेना से अलग होकर भटक गये। सबने उन्हें वीरगति को प्राप्त मान लिया लेकिन वो जब वापस आये तो सबने उनका स्वागत बड़े जोर-शोर से किया। ये दिन दीपोत्सव के ग्यारह दिनों बाद का दिन था इसलिए इस दिन को भी दीपोत्सव जैसा मनाया गया, उस युद्ध में माधोसिंह गढ़वाल-तिब्बत की सीमा तय कर चुके थे जो वर्तमान में भारत- तिब्बत सीमा है।
पहाडी इगास लुप्त होने वाले त्यौहारों की श्रेणी में है, इसका मुख्य कारण बढ़ता बाजारवाद, क्षेत्रीय लोगों की उदासीनता और पलायन है।
इस त्यौहार को बूढ़ दवैली, बूढ़ी दिआऊड़ी, दयाउली भी कहा जाता है। इस पारम्परिक आयोजन से जुड़ी किवदंतियां महाभारत व रामायण युग से सम्बन्धित हैं। पहाड़ी इलाकों में श्रीराम के अयोध्या लौटने की खबर देर से पहुंची और तब तक पूरा देश दीवाली मना चुका था फिर भी पहाड़ी निवासियों ने दीपोत्सव मनाया जिसका नाम पड़ गया बूढ़ी दीवाली।
बूढ़ी दिवाली आयोजनों में अभिमन्यु के चक्रव्यूह भेदने के दृश्य को खास अंदाज में मंचित किया जाता है। अखाड़े में लोग रस्सियों का एक घेरा बना उसे थामे रहते हैं। बीच में एक व्यक्ति हाथ में लाठी थामे रहता है। निश्चित समय पर संकेत से रस्सी का घेरा तंग किया जाता है बीच में खड़े अभिमन्यु को जकड़ने की कोशिश की जाती है वह घेरा तोड़ने का प्रयास करता है और सफल होकर दिखाता है। यह क्रिया कई बार दोहराई जाती है। इस चक्रव्यूहिक आयोजन में लोग कई बार जख्मी हो जाते हैं। मगर उल्लास और उमंग के वातावरण में कोई परवाह नहीं करता।
इससे पहले अमावस की संध्या को टूटी लकड़ियाँ इकट्ठी की जाती है व मेला स्थल दशनामी में रात्रि की पूवार्ध में पूजन कर उनमें आग लगा दी जाती है। लोग गाते हुए ‘पांडव नृत्य’ करते हैं। मध्य रात्रि को पांडव कौरव संघर्ष अभिनीत किया जाता है, कौरव पांडवों पर आक्रमण करते हैं, पांडव डट कर मुकाबला कर जीतते हैं, फिर जश्न होता है। पूरी रात विजयोल्लास में परिवर्तित हो जाती हैं।
सिरमौर में मूल दीवाली के दिनों में ग्रामीण क्षेत्रों में काम की अधिकता होती है। यहां इन दिनों घासनियों (घास उगाने वाली जगहें) से सर्दी के लिए घास काटकर रखना होता है। मक्की की कटाई, अरबी निकाली जा रही होती है। अदरक निकाल कर बाजार पहुंचाना होता है। ऐसे समय के बीच दीवाली मनाने की फुरसत नहीं मिलती इसलिए बूढ़ी दीवाली मनाई जाती रही है। बूढ़ी दीवाली के पहले दिन मक्की के सूखे टांडों को जलाया जाता है। ढोल करनाल, दुमालू के लोकसंगीत में गूँथी शिरगुल देव की गाथा गाई जाती है। कार्यक्रम देर रात तक चलता है। अमावस्या के मौके पर दीवाली का मुख्य नृत्य ‘बूढ़ा नृत्य’ होता है। हुड़क बजाते हैं। शाम को सूखी लकड़ी एकत्र कर जलाई जाती है। अगले दिन पड़वा को देव पूजा होती है।
बूढ़ी दीवाली के दिन उड़द भिगोकर फिर उसे पीसकर, नमक मसाले मिला कर आटे के गोले के बीच भरकर पहले तवे पर रोटी की तरह सेंका जाता है फिर सरसों के तेल में फ्राई कर देसी घी के साथ खाया जाता है। मूड़ा, मक्की भूनकर व धान को नमक के पानी में कई दिन भिगोकर, छिलका अलग कर भूनकर, कूटकर चिवड़ा बनाकर खाया खिलाया जाता है। इन पहाड़ी खानों का अपना विशिष्ट स्वाद होता है। कई स्थानों पर दीवाली को मंगशराली भी कहते हैं। पुरेटुआ का गीत गाना इस अवसर पर जरूरी समझा जाता है। जिसमें वर्णित है कि त्योहार के मौके पर घर पर ही रहना चाहिए। पुरेटुआ ने अपनी वीरता के अभिमान में ऐसा किया और मारा गया।
सिरमौर में कई जगह दिन में सिरमौरी लोक नाट्य सांग और स्वांग का आयोजन भी होता है। उत्सव के दौरान हर शाम सांस्कृतिक कार्यक्रमों की धूम मची रहती है। आग जलाकर चारों तरफ बैठकर लोक नृत्य ‘नाटी’ का रंग जमता है। खलियानों में रखे कृषियंत्रों पर दीपक जलाए जाते हैं। पारम्परिक लोकगीत गाए जाते हैं। इस दीवाली को क्षेत्र में पुरानी या बूढी दीवाली के नाम से जाना जाता है। इस दिन पहाड़ी उत्पाद झंगोरे से तैयार विशेष पकवान मेहमानों को परोसे जाते हैं। इसके बाद दूसरे दिन रात्रि में मुख्य होलियात खेली जाती है और ग्रामीण लगभग आधी रात तक अपनी लोक संस्कृति पर आधारित लोकगीतों व लोकनृत्यों पर थिरकते हुए पर्व का जश्न मनाते हैं। तीसरे दिन भिरुड़ी का आयोजन होगा। जिसमें अंतिम होलियात खेली जाएगी। चौथे दिन मुख्य भांड़ का आयोजन होता है और पांचवें दिन गावों में पांडव नृत्य के साथ पर्व को विदाई दी जाएगी।
पर्व को लेकर स्थानीय लोगों में खासा उत्साह बना हुआ है। दूरदराज के इलाकों में नौकरी कर रहे लोगों ने भी पर्व को लेकर घरों को आना शुरू कर दिया है। इतना ही नहीं, घरों में पर्व की तैयारियों को लेकर क्षेत्रवासी जोर-शोर से जुटे हुए हैं। बाजारों में भी बूढ़ी दीपावली पर्व की रौनक देखने को मिल रही है जो निश्चित ही पहाड़ों में अनुपम खुशी बिखेरती है। उत्तराखंड सरकार ने बूढ़ी दीपावली पर राजकीय अवकाश घोषित किया हुआ है जो इस पर्व की महत्ता का प्रबल प्रमाण है।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / संजीव पाश