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झाड़ग्राम, 22 अक्टूबर (हि. स.)। दीपावली की रात जहां शहरों में बिजली की रौशनी और पटाखों की आवाज़ें गूंजती रही, वहीं झाड़ग्राम के बेलपहाड़ी और आस-पास के आदिवासी इलाकों में उस रात की पहचान कुछ और है — यहां मनाया जाता है ‘गोरू जागान पर्व’।
यह पर्व आदिवासी समुदायों की धरती मां और पशु देवता के प्रति कृतज्ञता का प्रतीक माना जाता है।
स्थानीय परंपरा के अनुसार, दीपावली की दो रात ग्रामीण अपने पालतू बैलों और गायों को सजाते हैं, उनके सींगों पर रंग लगाते हैं, और फिर रातभर गीत, नृत्य और डुगडुगी की थाप पर ‘गोरू जागान’ मनाते हैं — जिसका अर्थ है “गाय-बैल को जगाना”।
स्थानीय बुजुर्गों के अनुसार, इस परंपरा की जड़ें सैकड़ों साल पुरानी हैं। लोककथाओं में कहा जाता है कि जब धरती अंधकार में डूब जाती है (दीपावली की अमावस्या), तब गाय और बैल जो जीवन और अन्न के प्रतीक हैं — उन्हें जागृत कर प्रकृति से अगले वर्ष की समृद्धि की प्रार्थना की जाती है।
बेलपहाड़ी के एक ग्रामीण हरिभान हेम्ब्रम बताते हैं, “हमारे पूर्वज कहते थे, अगर दीपावली की रात गोरू (गाय) को जगाया जाए, तो आने वाले साल में खेतों में फसल लहलहाती है। इसीलिए रातभर हम नाचते-गाते हैं —ये पूजा नहीं, एक आशीर्वाद है धरती मां से।”
रातभर गांव में मादल, ढोल और डुगडुगी की थाप गूंजती रहती है। महिलायें पारंपरिक वस्त्र पहनकर गीत गाती हैं और युवक मशाल लेकर ‘गोरू जागान’ का जुलूस निकालते हैं। सुबह होते ही पशुओं को चारा और गुड़ खिलाकर पूजा संपन्न की जाती है।
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हिन्दुस्थान समाचार / अभिमन्यु गुप्ता