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– डॉ. मयंक चतुर्वेदी
दरिद्रता और समृद्धि ये दोनों शब्द सदा ‘मां लक्ष्मी’ से जुड़े रहे हैं। जहाँ लक्ष्मी का वास होता है, वहाँ दरिद्रता का अस्तित्व नहीं टिक सकता। भारतीय संस्कृति में दीपावली का पर्व धार्मिक अनुष्ठान होने के साथ ही सामाजिक, आर्थिक और आध्यात्मिक प्रकाश का उत्सव है। इस दिन भारत के हर कोने में दीपक जलते हैं, जो यह प्रतीक बनते हैं कि अंधकार कितना भी गहरा हो, प्रकाश अंततः विजय पाता है। परंतु यही दीपोत्सव जब भारत के केंद्रीय विद्यालयों तक पहुँचता है, तो उस प्रकाश के स्थान पर एक अजीब-सी प्रशासनिक दरिद्रता दिखाई देती है। देशभर में जहाँ दीपावली पाँच दिनों तक उल्लासपूर्वक मनाई जाती है, वहीं केंद्रीय विद्यालय संगठन (केवीएस) में इसका अवकाश मात्र एक दिन तक सीमित है।
यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब दीपावली भारत के हर घर, बाजार और संस्थान में उत्सव का कारण बनती है, तब शिक्षा मंत्रालय की यह उदासीनता क्यों? क्या यह तर्कसंगत है कि बच्चे और शिक्षक रातभर पूजा-पाठ, रिश्तेदारों के आगमन और उत्सव की थकान के बाद अगले दिन प्रातः विद्यालय में उपस्थित हों? नियम बनानेवाले ये कैसे भूल सकते हैं कि शिक्षा व्यवस्था केवल परीक्षा और पाठ्यक्रम का ढांचा नहीं होती, वह तो समाज की धड़कन से जुड़ी व्यवस्था है। जब वही व्यवस्था अपने विद्यार्थियों और शिक्षकों की सांस्कृतिक संवेदनाओं से कट जाए, तब शिक्षा “मानव निर्माण” के बजाय “यांत्रिक प्रक्रिया” बन जाती है।
अर्थव्यवस्था की गति: दीपावली का प्रभाव
दीपावली का प्रभाव केवल धार्मिक नहीं, आर्थिक रूप से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। दीपावली सीजन में भारत में उपभोक्ता व्यय ₹ पांच लाख करोड़ तक पहुँचता है, जिससे करीब ₹32 लाख करोड़ की जीडीपी सक्रियता उत्पन्न होती है। ई-कॉमर्स, खुदरा, परिवहन और पर्यटन क्षेत्र में इस दौरान 25–30 प्रतिशत तक वृद्धि दर्ज होती है। अर्थात जब घर-घर में दीप जलते हैं, तब बाजार और रोजगार दोनों चमक उठते हैं। ऐसे में यह आश्चर्यजनक है कि देश की अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा पर्व, जिसे विश्व अब “Festival of Prosperity” कहने लगा है, उसी देश के केंद्रीय विद्यालयों के लिए “साधारण दिन” जैसा बना हुआ है?
कहना होगा कि ये केंद्रीय विद्यालयों का एक-दिनीय अवकाश केवल प्रशासनिक निर्णय नहीं, वस्तुत: उस मानसिकता का प्रतीक है जो शिक्षा और संस्कृति को दो विपरीत दिशाओं में देखती है। जब विद्यालय संस्कृति से कट जाते हैं, तो शिक्षा का उद्देश्य अधूरा रह जाता है। शिक्षा विशेषज्ञ भी इस बात को मानते हैं कि तीन से पाँच दिन का दीपावली अवकाश छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य, परिवारिक जुड़ाव और सांस्कृतिक चेतना के लिए आवश्यक है। अध्ययन बताते हैं कि विश्राम और पारिवारिक समय बिताने के बाद छात्र अधिक केंद्रित, सृजनशील और ऊर्जावान होकर लौटते हैं। इसीलिए अवकाश को “पढ़ाई का नुकसान” नहीं, बल्कि “शिक्षा में निवेश” कहा गया है।
धर्मेंद्र प्रधान और अभाविप की सांस्कृतिक सोच
यहाँ सबसे बड़ा प्रश्न केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान से जुड़ा है। यदि वे भी भारतीय संस्कृति के तत्वों और ऊर्जा केंद्रों का ध्यान नहीं रखेंगे तो उम्मीद किससे की जाएगी? क्योंकि उनका जीवन तो छात्र शक्ति से राष्ट्र शक्ति तक का सतत प्रवाह है। एक ऐसा संगठन जिसने हमेशा भारतीय संस्कृति और शिक्षा के समन्वय का पक्ष लिया है। अभाविप का मूल विचार ही रहा है कि “भारतीय शिक्षा भारतीयता के भाव से परिपूर्ण हो।”
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् में रहकर भारत के लिए जीने का व्रत उन्होंने लिया, तभी तो वे आज मोदी सरकार में अहम जिम्मेदारी पर हैं, यदि वे ही अपनी संस्कृति के लिए सजग नहीं रहेंगे तब सवाल यह है कि फिर इस बात के लिए कहां गुहार लगाई जाए? धर्मेंद्र प्रधान ने अपने राजनीतिक जीवन में कई बार कहा है कि शिक्षा केवल किताबों तक सीमित नहीं होनी चाहिए; उसे भारत की सांस्कृतिक आत्मा से जुड़ा होना चाहिए।
केंद्रीय विद्यालय में दीपोत्सव के अवसर पर कम से कम तीन से पांच दिवस का निरंतरता में अवकाश रखा जाना चाहिए। दीपावली केवल घरों में प्रकाश नहीं फैलाती, बल्कि मन, समाज और राष्ट्र की चेतना को भी आलोकित करती है। इस पर्व का उत्सव बच्चों के भीतर वह संस्कार जगाता है जो उन्हें परिश्रमी, कृतज्ञ और संयमी बनाता है। यदि शिक्षा मंत्रालय इसे मात्र एक दिन का औपचारिक अवकाश मानकर चलता रहेगा, तो आने वाली पीढ़ियाँ उस सांस्कृतिक शिक्षा से वंचित रह जाएँगी, जो किसी पाठ्य-पुस्तक में नहीं मिलती।
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हिन्दुस्थान समाचार / डॉ. मयंक चतुर्वेदी