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बृजनन्दन राजू
भारत की संस्कृति राममय है। राम राष्ट्रनायक हैं। भारत के जीवन दर्शन में सर्वत्र राम समाये हुए हैं। भारत की आस्था, भारत का मन, भारत का विचार, भारत का दर्शन, भारत का चिंतन, भारत का विधान राम से है। भारत का प्रताप, प्रभाव व प्रवाह भी राम हैं। राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा से राम की सर्वव्यापकता के दर्शन हुए। भारत के नगर, ग्राम, गिरी और कंदराओं से लेकर दुनिया के 125 देशों में रहने वाले हिन्दुओं ने उत्सव मनाया। युवाओं के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम से बढ़कर कोई आदर्श नहीं हो सकता। राम ने अपने जीवन का स्वर्णिम समय 'तरुणाई' को राष्ट्र के काम में लगाया। राम का सारा जीवन प्रेरणा से भरा है। राम की राजमहल से जंगल तक की यात्रा को देखें तो कठिनतम परिस्थितियों में भी वह अविचल रहे। उन्होंने समाज में सब प्रकार का आदर्श स्थापित किया। आदर्श भाई,आदर्श मित्र,आज्ञाकारी पुत्र, आज्ञाकारी शिष्य, आदर्श पति, आदर्श पिता और आदर्श राजा का उदाहरण स्वयं के आचरण से प्रस्तुत किया। पूरी अयोध्या के युवा उनके सखा थे। वह कामादिदोषरहितं, कुशल संगठनकर्ता, लोक संग्रही, मितव्ययी व मृदुभाषी थे।
वाल्मीकि रामायण के अनुसार नारद जी ने महर्षि वाल्मीकि को राम के गुणों के बारे में बताते हुए कहा- इक्ष्वाकुवंश प्रभवो रामो नाम जनै: श्रुत:। नियतात्मा महावीर्यो द्यृतिमान द्युतिमान वशी। नारद जी कहते हैं इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न राम मन को वश में रखने वाले, महाबलवान, कान्तिमान, धैर्यवान और जितेन्द्रिय हैं। वे बुद्धिमान,नीतिमान तथा वाग्मी यानि अच्छे वक्ता भी हैं। वे प्रतापवान, धर्मज्ञ, सत्यप्रतिज्ञ, प्रजाप्रतिपालक,अखिल शास्त्रों के तत्वज्ञ,वेदवेदांग के ज्ञाता,गंभीरता में समुद्र और धैर्य में हिमालय के समान हैं। राम के जीवनकाल की शुरुआत संतों की सेवा के साथ हुई। अत्याचारी रावण के आतंक से जब समाज चीत्कार कर रहा था। ऋषि मुनि सताये जा रहे थे। अनुसंधान के प्रत्येक कार्य में जब राक्षस विघ्न डालते और ऋषियों के यज्ञ विध्वंस किए जा रहे थे। रावण को चुनौती देने का साहस समाज नहीं जुटा पा रहा था। रावण का आतंक इतना बढ़ गया था कि ऋषि-मुनियों की हड्डियों के पहाड़ लग गये थे। हड्डियों के लगे पहाड़ देखकर राम ने प्रतिज्ञा ली थी कि निश्चिचर हीन करहु महिं भुज उठाय प्रण कींन्ह। राम ने राक्षसों का संहार कर समाज को अभय प्रदान किया। राम का करीब 16 वर्ष की अवस्था में विवाह हुआ। 18 वर्ष की अवस्था में वनवास हुआ। इसके बाद कानन, कठिन भयंकर भारी, 14 वर्ष वन में रहे। जंगल, महल, सुख-दुख, निन्दा प्रशंसा, यश-अपयश आदि की चिंता नहीं की। जो मिला उसे ग्रहण कि। जो कहा गया उसका पालन किया।
राम को युवराज बनाने की तैयारी हो रही है लेकिन अचानक उन्हें समाचार मिला कि वन जाना है। राम विद्रोह नहीं करते वन जाने को सहर्ष तैयार हो जाते हैं। चक्रवर्ती सम्राट के पुत्र होकर भी घोर अभाव के बीच वन में 14 वर्ष व्यतीत करते हैं। जंगल में वनवास के दौरान शूर्पणखा ने राम के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा। राम और लक्ष्मण दोनों शूर्पणखा का यह प्रस्ताव अस्वीकार कर देते हैं। राक्षस राज रावण पंचवटी से सीता का हरण कर लेता है। वनवासियों के बल पर लंका पर चढ़ाई की। राम सुग्रीव से मित्रता करते हैं। वनवासियों को संगठित कर अत्याचारी रावण का संहार किया। राम ने रावण के मारने के बाद लंका पर अपना राज्य स्थापित नहीं किया। विभीषण को लंका का राजा बनाया। लक्ष्मण से राम कहते हैं 'अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी'। मातृभूमि के प्रति ऐसी उत्कट निष्ठा राम रखते हैं। राम के जीवन की इन सब घटनाओं से युवाओं को प्रेरणा लेनी चाहिए। सेवक के प्रति कैसा अनुराग होना चाहिए यह राम और हनुमान के बीच प्रेम को देखना चाहिए। उनके जीवन में एक भी उदाहरण नहीं मिलता कि उन्होंने किसी सज्जन का विरोध या उपहास किया हो। उन्होंने जो भी किया देशकाल परिस्थिति के अनुसार किया।राम का समस्त निर्णय शास्त्र सम्मत और देशकाल सम्मत था।
राजा राम प्रजा के विचार को जानने के लिए आकुल रहते हैं। राज्य के निरीक्षण में वे अकेले भेष बदलकर निकल जाते हैं। वनवास से लौटने के बाद नागरिक अभिनंदन सभा में राम ने घोषणा की कि जो अनीति कछु भाखहु भाई। राम ने कहा कि मेरे राज्य में जो कुछ भी आपको अनुचित लगे उसको बिना भय के आप कहें क्योंकि लोक अपवाद से वह डरते नहीं हैं। आज के सत्ताधीशों को राम से प्रेरणा लेनी चाहिए। राम ने जंगल, महल, सुख दुख,निन्दा प्रशंसा, यश-अपयश आदि की परवाह नहीं की। राजा को सत्य का आग्रही होना चाहिए। प्रजा के विचार को चिंतन में लाना चाहिए। इसका प्रमाण रामराज्य में मिलता है। रामराज्य में तर्क की पूरी छूट थी। समस्त कलाओं के प्रति वह आदर रखते थे। शील ,विनय और औदार्य में उनका कोई सानी नहीं है।
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम सामाजिक समरसता के प्रतीक हैं। वनवास के दौरान वह श्रंगवेरपुर के राजा निषाद राज गुह का आतिथ्य ग्रहण करते हैं। श्रीराम जब श्रंगवेरपुर पहुंचते हैं तो वहां के राजा निषाद राज गुह अपने भाई-बंधुओं को बुलाकर बहंगियों में फल फूल भरकर उनसे मिलने के लिए चले।रामचरितमानस के अयोध्याकाण्ड में गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है-
लिए फल मूल भेंट भरि भारा। मिलन चलेउ हिय हरषु अपारा।।
करि दण्डवत भेंट धरि आगे। प्रभुहि बिलोकत अति अनुरागे।
सहज सनेह बिबस रघुराई। पूंछी कुशल निकट बैठाई।।
रामजी निषाद राज को निकट बैठाकर उसका कुशल क्षेम पूछते हैं। इसके बाद उसके द्वारा लाये गये फल को ग्रहण करते हैं। निषादराज गुह राम से श्रंगवेरपुर नगर में चलने का अनुरोध करते हैं। तब श्रीराम जी उनसे कहते हैं कि पिताजी की आज्ञा के अनुसार मुझे 14 वर्ष तक मुनियों का व्रत और वेष धारण कर मुनियों के योग्य आहार करते हुए वन में ही बसना है। गांव के भीतर निवास करना उचित नहीं है। इसके बाद निषादराज राम के साथ-साथ चलता है। गंगा पार जाने के लिए केवट से नाव मांगते हैं। केवट के प्रेम में भाव विभोर होकर राम उसे गले लगाते हैं। चित्रकूट पहुंचने पर कोल किरात ने सुन्दर कुटी बनाई। माता शबरी की कुटिया में पधारकर राम उनके हाथों से फल ग्रहण करते हैं। पूरे वनवास के दौरान वनवासी समाज ने ही भगवान राम का हर प्रकार से सहयोग किया। वनवास के दौरान राम जी जहां भी रुके उनके रहने योग्य पर्णकुटी और और अन्य साधन वनवासियों ने ही उपलब्ध कराया। संकटकाल में भी राम की सहायता वनवासी समाज ने ही की।
राम वनवासी समाज को संगठित कर शक्तिशाली रावण का मुकाबला करते हैं। गिद्धराज जटायु को गले लगाते हैं। हनुमान हों, जामवंत हों,अंगद हों, नल-नील या अन्य योद्धा हों, सब वनवासी समाज से ही थे। लंका पर चढ़ाई करने के लिए समुद्र पर सेतु बांधने का महान दुष्कर कार्य वनवासी समाज के सहयोग से ही संभव हो सका। राम केवल ताकतवर व बड़ों को ही सम्मान नहीं देते बल्कि पूरे समाज को सम्मान देते हैं। रामसेतु के निर्माण में गिलहरी का भी सहयोग लेते हैं। रामायण में प्रसंग है कि लंका में राम रावण से युद्ध के समय भगवान राम के पैर में पनही भी नहीं थी। तब विभीषण जीत पर शंका व्यक्त करते हुए कहते हैं। हे प्रभु 'रावण रथी विरथ रघुबीरा। हम कैसे जीतेंगे। तब रामचन्द्र जी विभीषण से कहते हैं कि -सौरज धीरज जाहि रथ चाका। सत्य शील दृढ़ ध्वजा पताका। यानी किसी भी कार्य की सिद्धि मात्र उपकरणों के सहारे नहीं हो सकती उसके लिए अंत:करण की शक्ति जरूरी होती है।
आदर्श शासन व्यवस्था के रूप में दुनियाभर में रामराज्य का उदाहरण दिया जाता है। जहां विकास के साथ-साथ स्वतंत्रता, सुरक्षा, समानता, स्वावलम्बन और समृद्धि हो, वही रामराज्य है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में कहा है- दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहहिं काहुहि ब्यापा।। महात्मा गांधी ने भी रामराज्य की वकालत की थी। आज भी लोग यदि अपना आचरण धर्मानुसार करना शुरू कर दें तो रामराज्य आने से कोई नहीं रोक सकता। रामराज्य को केवल भौतिक सुविधाओं के नजरिये से ही नहीं बल्कि नागरिकों के आचरण, व्यवहार और विचार और मर्यादाओं के पालन के हिसाब से देखना चाहिए।
रामराज्य में सभी नागरिक आत्म अनुशासित थे, वह शास्त्रों व वेदों के नियमों का पालन करते थे, जिनसे वह निरोग, भय, शोक और रोग से मुक्त होते थे। सभी नागरिक दोष और विकारों से मुक्त थे यानी वह काम, क्रोध, मद से दूर थे। सुखद यह है कि देश में श्रीराम का मंदिर बनने के बाद अब फिर से रामराज्य की अवधारणा पर काम हो रहा है। जैसे राम ने सम्पूर्ण समाज को संगठित कर रामराज्य की स्थापना की थी आज ठीक उसी प्रकार का प्रयास वर्तमान में भारत की राजसत्ता कर रही है। वंचित समाज को मुख्यधारा में लाकर हर प्रकार से समर्थ व स्वावलम्बी बनाने का कार्य भारत सरकार कर रही है। जातिभेद व अस्पृश्यता आज समाज से दूर हो रही है। सामाजिक समरसता का वातावरण देशभर में बन रहा है। हिन्दू समाज 500 वर्ष बाद अपने राम जन्मस्थान पर बने भव्य मंदिर में रामनवमी का उत्सव मना रहा है। पूरे देश में उत्साह व आनंद का वातावरण है। सब देशवासी अपनी-जाति बिरादरी को भूलकर हमसब राम की संतान हैं का संदेश दे रहे हैं।
(लेखक, सामाजिक समरसता मंच से संबद्ध हैं।)
हिन्दुस्थान समाचार/मुकुंद