आस्था और विज्ञान के बीच
चांद पर जाना ईश्वर होना नहीं है। ईश्वर के करीब पहुंचना है-अपनी खोज के जरिए। हम दोनों ही तरीकों से ईश्वर के करीब हो सकते हैं, चाहे आस्था से, चाहे तो विज्ञान से।

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नवीन रांगियाल
चांद पर जाना ईश्वर होना नहीं है। ईश्वर के करीब पहुंचना है-अपनी खोज के जरिए। हम दोनों ही तरीकों से ईश्वर के करीब हो सकते हैं, चाहे आस्था से, चाहे तो विज्ञान से। यह हम सब की प्राथमिकताओं पर निर्भर करता है। हम कौन-सा रास्ता चुनते हैं। खोज के बगैर मनुष्य का कोई अस्तित्व नहीं। चाहे वैज्ञानिक खोज हो या आध्यात्मिक खोज।
मेरे अब तक के विवेक से मुझे लगता है कि-आस्था और विज्ञान दोनों के ही मूल में खोज है। इसलिए दोनों को नहीं झुठलाया जा सकता। अगर कोई विज्ञान के बल पर ईश्वर को भला-बुरा कहता है तो वो अपने होने के अस्तित्व को ही नकार रहा है और अगर कोई आस्था को सर्वश्रेष्ठ कहकर विज्ञान को नकार रहा है तो वो अब तक के मानव विकास क्रम, तकनीक (तकनीक- जिसके सहारे आज हम जिंदा हैं) और मनुष्य के आदि मानव होने से लेकर अब तक की अदभुत और चमत्कृत करने वाली इस यात्रा को ही झुठला रहा है।
ये दुनिया किसी एक सत्य से नहीं बनी। अगर ऐसा होता तो हम सबकी कविताएं एक जैसी होतीं, हमारे सुख और दुख भी अलग-अलग नहीं होते। लेकिन अलग-अलग सत्य की वजह से यहां सब कुछ और सभी एक-दूसरे से अलग हैं। शायद इसलिए यहां आस्था भी है और विज्ञान भी। बहुत बेसिक बात है-जब हम बीमार पड़ते हैं तो डॉक्टर के पास जाते हैं, मनुष्य का ये विकास क्रम हमें डॉक्टर के पास जाने के लिए ही प्रेरित करता है। यह हमारी बौद्धिक उपलब्धि है। जब हम हर जगह से थक-हार जाते हैं और चिकित्सकीय तकनीक भी निराश हताश हो जाती है तो हम आस्था की गोद में चले जाते हैं और प्रार्थनाओं के सहारे ईश्वर से अपने लिए बेहतरी और कुछ सहूलियत मांगते हैं। कई बार तकनीक हमारी सांसों को कुछ आगे तक धका देती है तो कई बार आस्था की वजह से मृत मान ली गई देह में हलचल हो जाती है।
विज्ञान और तकनीक में साधन समाहित हैं-और आस्था में एक भरोसा। एक नितांत इन्डिविजुअल का भरोसा। बस, दोनों में शायद इतना ही फर्क है।
चांद पर रॉकेट भेजने से पहले वैज्ञानिक अगर किसी मंदिर में माथा टेकता है तो यह उसका नितांत इन्डिविजुअल आस्था का मामला है और चंद्रयान अगर चांद की सतह पर तिरंगा फहराता है तो यह उस वैज्ञानिक की बौद्धिक उपलब्धि है। एक तकनीकी अचीवमेंट। वैज्ञानिक ने निजी तौर पर चाहा होगा कि जिस काम को वो बरसों से कर रहा है, वो और बेहतर तरीके से हो जाए। इसके लिए प्रार्थना तो की ही जा सकती है।
मैं घर से निकलने से पहले अपने कुल के स्थान पर माथा टेकता हूं यह जानते हुए कि ऑफिस में काम तो मुझे ही करना है। जिस जगह पर माथा टेकता हूं, वहां कोई ईश्वर नहीं है, वो सिर्फ जमीन का एक टुकड़ा है-जहां मेरे पुरखों के माथे के भी निशान उभरे हुए हैं-मैं बस उन निशानों के पीछे-पीछे चला आ रहा हूं।
जो काम मैं करने के लिए निकल रहा हूं उसे ठीक तरह से कर सकूं इतना भरोसा बनाए रखने के लिए मैं किसी ईश्वर, किसी शक्ति या किसी ऊर्जा (कुछ भी कह लें) में इतनी आस्था तो रखना ही चाहूंगा-क्योंकि इतना इंसान तो मैं बने ही रहना चाहता हूं। आप चाहे तो मेरे इस भाव पर असहमत होकर 'माय फुट' लिख सकते हैं-हमारे यहां चरण पूजने के भी संस्कार हैं।
(लेखक, वैचारिक रचनाधर्मिता के लिए ख्यात हैं। आलेख उनकी फेसबुक वॉल से साभार।)
हिन्दुस्थान समाचार/मुकुंद