निरंकुश और विवेक हीन शासन व्यवस्था स्वयं ही नष्ट हो जाती है
भारतेंदु हरीशचंद्र के नाटक ’ अंधेर नगरी ’ में ऐसी व्यवस्था पर किया गया व्यंग्य लखनऊ, 03 फरवरी ( ह
निरंकुश और विवेक हीन शासन व्यवस्था स्वयं ही नष्ट हो जाती है


भारतेंदु हरीशचंद्र के नाटक ’ अंधेर नगरी ’ में ऐसी व्यवस्था पर किया गया व्यंग्य

लखनऊ, 03 फरवरी ( हि.स.)। प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार भारततेंदु हरिशचंद्र के नाटक ’अंधेर नगरी’ का सर्वाधिक लोकप्रिय नाटक है। उन्होंने इस नाटक में विवेकहीन और निरंकुश शासन व्यवस्था पर व्यंग्य किया है। ऐसी व्यवस्था अपने ही कर्मों द्वारा नष्ट हो जाती है। भारततेंदु ने इसकी रचना बनारस के हिंन्दू नेशनल थिएटर के लिए एक ही दिन में की थी। नाटक की प्रस्तुति मंचकृति की ओर से की गई। इसकी मंच परिकल्पना एवं निर्देशन वरिष्ठ थिएटर एवं फिल्म अभिनेता संगम बहुगुगणा ने किया। इसी के साथ शुक्रवार से वल्र्ड रिकार्ड बनाने के उद्देश्य से 30 दिनी नाट्य समारोह की शृरूआत हुई। इसका समापन चार मार्च को होगा। जिसका संयोजन वरिष्ठ रंगकर्मी बहुगुणा ही कर रहे है।

नाटक की कथा महंत और उसके दो शिष्यों गोवर्धन दास और नारायण दास से प्रारंभ होती है। महंत अपने दोनों शिष्यों के साथ शहर के बहारी हिस्से में पहुंचता है। महंत उन्हें नगर में भिक्षा मागनें के लिए भेजता है। उसके बाद बाजार का दृश्य है। जहां गोवर्धन दास आश्चर्यचकित सा बाजार को देख रहा है, और अंत में हलवाई से मिठाई खरीदतें हुए पूछता है कि इस, ’इस नगरी का नाम क्या है?’ और यहा के ’राजा के नाम क्या है?’जवाब में हलवाइ्र बताता है नगरी का नाम अंधेर नगरी और राजा का नाम चैपट राजा है।

तीसरे अंक में महंत और गोवर्धन दास का वार्तालाप है। गोवर्धन दास महंत को नगर के बारें में बताता है और उस से प्रार्थना करता है कि वह इसी शहर में स्थाई निवास बना लें लेकिन महंत जल्द से जल्द शहर से दूर चले जाने की की बात कहता है। चैथे अंक में अंधेर नगरी चैपट राजा के दरबार और न्याय का चित्रण है। शराब मंे ड़ूबा राजा फरियादी के बकरी दबने की शिकायत पर बनिया से शुरू होकर कारीगर,चूने, वाले, कसाई और गड़रिया से होते हुए कोतवाल तक जा पहुंचता है और कोतवाल को फांसी की सजा देता है।

पांचवे अंक में गोवर्धन दास को सजा के सिपाही फांसी देने के लिए पकड़ ले जाते है। सह उसे बताते है कि बकरी मरी इसलिए न्याय की खातिर किसी को तो फांसी पर जरूर चढ़ाया जाना चाहिए जब दुबले कोतवाल के गले में फंदा बड़ा निकला तो राजा ने किसी मोटे को फांसी देने का हुक्म दिया हैं। आखिरी अंक में गोवर्धन दास को फंासी देने की तैयारी होने लगती है तभी महंत आकर गोवर्धन दास के कान में कुछ मंत्र देते है, उसके बाद गुरू शिष्य दोनों फांसी पर चढ़ने की उतावली दिखाते है। राजा यह सुनकर कि इस शुभ सायत में फंासी चढ़ानें वाला सीधा बैकुंठ जाएगा, वह स्वयं को भी फांसी पर चढ़ाने की आज्ञा देता है इस तरह अन्याय और मुर्ख राजा स्वतः ही नष्ट हो जाता है। नाटक का पटाक्षेप हो जाता है।

भानु प्रकाश पाण्ड़े ने महंत का और प्रशांत शर्मा गोवर्धन दास का किरदार अभिनीति किया। यश पाठक ने नारायण दास का किरदार किया। नाटक में मंच से परे प्रकाश व्यवस्था गोपाल सिन्हा की, मेकअप शहीर अहमद ने किया।

हिन्दुस्थान समाचार / शैलेंद्र मिश्रा