झांसी, 14 अगस्त (हि.स.)। यूं तो झांसी में 1857 की क्रांति जगजाहिर है। महारानी लक्ष्मीबाई के शौर्य और पराक्रम के लिए यह वर्ष इतिहास के स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है, लेकिन वीरों की यह भूमि इससे पहले ही क्रांति की एक और इबारत 1841 में ही लिख चुकी थी। यह झांसी का चिरगांव क्षेत्र ही था जहां के राजा ने 1941 में ही अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। हालांकि इसकी कीमत बाद में उन्हें अपने प्राणों की आहुति देकर चुकानी पड़ी थी। यह उनकी लोकप्रियता का ही आलम है कि उनके वंशज चिरगांव नगर पालिका में चेयरमैन के पद पर आसीन हैं।
झांसी यूं तो महारानी लक्ष्मीबाई के शौर्य और पराक्रम के लिए जानी जाती है, लेकिन यहां के हर गांव और हर कस्बे में आजादी के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले लोग हैं। यह क्रम महारानी लक्ष्मीबाई के समय से भी पूर्व शुरू हो चुका था। चर्चित इतिहासकार हरगोविंद कुशवाहा बताते हैं कि झांसी में 1857 के पूर्व ही अंग्रेजों की खिलाफत शुरू हो गई थी। यह बात झांसी के गजेटियर में भी दर्ज है। झांसी, ओरछा के राजा वीर सिंह जूदेव के द्वारा स्थापित किया गया था। उनके ही वंशज मोहकम सिंह के नाती रावभगत सिंह 1841 में चिरगांव में शासन करते थे। इस दौरान अंग्रेजों का आना-जाना कालपी से झांसी होते हुए सागर के लिए बना रहता था।
इतिहासकार हरगोविंद कुशवाहा के मुताबिक, 13 अंग्रेजों का एक समूह कालपी से सागर के लिए निकला था। वह आकर चिरगांव में रुका। वे राव बखत सिंह के बाग में ठहरे थे। राव बखत सिंह प्रकृति प्रेमी थे। उनके बाग में कई प्रकार के मोर थे। अंग्रेजों ने उन मोरों को मारकर उनका मांस खाना शुरू कर दिया। यह बात राव भगत सिंह के अनुचरों को उचित नहीं लगी। उन्होंने अंग्रेजों का विरोध किया तो अंग्रेजों ने उन्हें गोली से उड़ा दिया। कुछ बचे हुए अनुचर राजा के पास पहुंचे और पूरा वृतांत सुनाया।
राजा को अपने राज्य में हस्तक्षेप कतई पसंद नहीं आया और उन्होंने अंग्रेजों से लोहा ले लिया। अपनी सेना की टुकड़ी के साथ पहुंचकर राव बखत सिंह ने सभी अंग्रेज सिपाहियों को मौत के घाट उतार दिया। यह बात ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों के लिए डूब मरने जैसी थी। अहंकार में डूबे अंग्रेजों ने रणनीति के तहत कालपी, झांसी, सागर और इंदौर की सेना को इकट्ठा कर चिरगांव पर हमला बोल दिया, भीषण युद्ध हुआ। इसमें राव बखत सिंह को पराजय का सामना करना पड़ा और वह अपनी जान बचा कर चिरगांव से भाग निकले, जबकि अंग्रेजी फौज ने चिरगांव के किले को तहस-नहस कर दिया गया।
राव बखत सिंह और उनके भतीजे रघुनाथ सिंह ने टीकमगढ़ के मोहनगढ़ किले में जाकर शरण ली। कुछ दिनों तक तो वहां वह सुरक्षित रहे, लेकिन जैसे ही अंग्रेजों को इसकी जानकारी हुई उन्होंने मोहनगढ़ का किला भी घेर लिया। वहां से निकलकर राव बखत सिंह छत्रसाल की राज्य सीमा में प्रवेश कर गए, लेकिन अंग्रेजी फौज उनके पीछे लगी थी और उन्हें हमीरपुर जिले के पनवाड़ी में घेर लिया गया। वहां उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई। आज भी वहां उनकी समाधि बनी हुई है। उनकी हत्या की जानकारी होते ही राजा छत्रसाल के वंशजों को यह नागवार गुजरा और क्षत्रिय समाज के सभी लोगों ने एकत्र होकर इसका विरोध करने का बीड़ा उठाया। उसके बाद अंग्रेजों का विद्रोह चलता रहा। महारानी लक्ष्मीबाई के अंग्रेजों से लोहा लेने के पूर्व अपनी प्रजा के लिए अंग्रजों का विद्रोह करने वाले राजा राव बखत सिंह की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि चिरगांव नगर पालिका के अध्यक्ष पद पर आज भी राजा के वंशजों का ही कब्जा है। अलग बात है कि आरक्षण के चलते कई बार उन्हें अपने लोगों को इस पद पर बैठाना पड़ा।
हिन्दुस्थान समाचार/ महेश पटैरिया