सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय पर्यटन स्थल के रूप में होगा विकसित
वाराणसी, 22 जुलाई (हि.स.)। सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय पर्यटन स्थल के रूप में विकसित होगा। व
वाराणसी, 22 जुलाई (हि.स.)। सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय पर्यटन स्थल के रूप में विकसित होगा। विश्वविद्यालय के ऐतिहासिक धरोहरोें और इससे जुड़े महापुरूषों पर वित्त चित्र भी बनेगा। विवि के कुलपति प्रो. हरेराम त्रिपाठी ने इस योजना को अमली जामा पहनाने के लिए गुरूवार को प्रदेश के पर्यटन एवं धर्मार्थ-कार्य राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) डॉ नीलकंठ तिवारी से उनके आवास पर जाकर मुलाकात की। इस दौरान कुलपति ने राज्यमंत्री से विश्वविद्यालय को पर्यटन स्थल के रूप में पूर्णत: विकसित करने एवं इस ऐतिहासिक परिसर के स्थापत्य तथा गौरवमय इतिहास पर एक वृत्तचित्र बनाने के लिए बातचीत की। राज्यमंत्री ने भी कुलपति की बात गंभीरता से सुनी। कुलपति ने बताया कि यह विश्वविद्यालय 230 वर्षों से अनवरत सम्पूर्ण विश्व को भारतीय संस्कृति, संस्कार एवं संस्कृत के ज्ञानराशि का पान कराता चला आ रहा है। यहाँ भारतीय वाङ्मय में विभिन्न युगों की गौरव गरिमा उपलब्ध है। परा और अपरा विद्याओं के मर्मज्ञ मनीषियों की आश्रय स्थली यह नगरी शिक्षा केन्द्र के रूप में अविच्छिन्न रूप से प्रतिष्ठित रही है । साहित्य, ज्योतिष, धर्मशास्त्र, व्याकरण, तन्त्र, आगम, मीमांसा, न्याय, वेदान्त आदि भारतीय शिक्षा के सभी अंग यहां है। राज्यमंत्री ने कुलपति की बात सुनने के बाद कहा कि इसकी एक परियोजना बनाकर सम्बंधित विभाग (धर्मार्थ कार्य एवं पर्यटन विभाग) प्रस्तुत करें। मंत्री ने इस कार्य मे समुचित सहयोग देने की बात कही। कुलपति प्रो. हरेराम त्रिपाठी ने बताया कि इस शैक्षणिक संस्था में देवतुल्य आचार्यों एवं मनीषी विद्वानों ने जो भूमिका निभाई है। और इस विश्वविद्यालय को अन्तरराष्ट्रीय क्षितिज पर ले गये हैं। उन विद्वानों एवं पूर्व कुलपतियों के जीवन वृत्त पर एक वृत्तचित्र भी बनाया जायेगा। जिसमें मुख्य रूप से प्रथम आचार्य पं काशीनाथ शास्त्री, गंगानाथ झाँ, पं गोपीनाथ कविराज आदि शामिल हैं। इन मनीषियों के जीवन दर्शन और सुकृत्यों पर वृत्तचित्र के निर्माण से नई पीढ़ी को आदर्श ज्ञान प्राप्त होगा। —शासकीय संस्कृत महाविद्यालय से बना विश्वविद्यालय कुलपति प्रो. त्रिपाठी ने बताया कि यह विश्वविद्यालय मूलतः ' शासकीय संस्कृत महाविद्यालय ' था, जिसकी स्थापना 1791 ई में की गई थी। 22 मार्च 1958 को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ सम्पूर्णानन्द के विशेष प्रयत्न से इसे विश्वविद्यालय का स्तर प्रदान किया गया। उस समय इसका नाम ' वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय ' था। 1974 में इसका नाम बदलकर 'सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय' रख दिया गया । योगदान- पूर्व काशी नरेश महीप नारायण सिंह, जे म्योर, डॉ जे आर वलेंटाइन, आरटीएच ग्रिफिथ, महामहोपाध्याय डॉ गंगाधर झा, पं गोपीनाथ कविराज, पूर्व मुख्यमंत्री डॉ सम्पूर्णानन्द, पूर्व मुख्यमंत्री पं कमलापति त्रिपाठी का विश्वविद्यालय में अहम् योगदान रहा। यहाँ से सम्पूर्ण देश में सम्बद्धता-- उत्तर प्रदेश, बिहार, पं. बंगाल, सिक्किम, गुजरात, महाराष्ट्र, हिमांचल, दिल्ली, राजस्थान, हरियाणा आदि प्रदेशों के लगभग 1200 संस्कृत महाविद्यालयों को इस विवि से सम्बद्धता प्रदान किया गया है। जिसका व्यापक विस्तार है। पठन-पाठन के लिये छह संकाय में क्रमश: वेद वेदांग संकाय,साहित्य-संस्कृति संकाय, दर्शन संकाय, श्रमण विद्या संकाय, आधुनिक ज्ञानविज्ञान संकाय एवं आयुर्वेद संकाय (जो राजकीय आयुर्वेद महाविद्यालय बना) है। जिसमें वेद, धर्मशास्त्र, ज्योतिष, व्याकरण, साहित्य, पुराणेतिहास, प्राचीन राजशास्त्र अर्थशास्त्र, न्याय वैशेषिक, सांख्य योग तन्त्र आगम, पूर्व मीमांसा, तुलनात्मक धर्म दर्शन, बौद्ध दर्शन, जैन दर्शन, पाली एवं थेरवाद, प्राकृत एवं जैनागम, आधुनिक भाषा एवं भाषा विज्ञान, समाजिक विज्ञान, गृह विज्ञान, शिक्षाशास्त्र, विज्ञान एवं ग्रन्थालय विज्ञान तथा विदेशी भाषाओं का भी पठन पाठन होता है। —मुख्य भवन आकर्षण का केन्द्र 02 नवम्बर 1847 को गॉथिक कला से युक्त मुख्य भवन की नींव महाराज बनारस और सैनिक अधिकारी नीब ने रखी। तत्कालीन काशिराज के उत्साह और सहयोग से 1848 से 1852 तक के चार वर्षों के अथक परिश्रम एवं स्थापत्य विशारद मेजर मारखम किट्टो के निरिक्षण मे निर्मित हुआ। राजकीय संस्कृत कालेज की स्थापना के साथ एक पुस्तकालय भी स्थापित किया गया। जिसका शिलान्यास 16 नवम्बर, 1907 को इंग्लैंड के प्रिन्स तथा प्रिंसेज ऑफ़ वेल्स के काशी आगमन पर हुआ था। वर्ष 1914 में यह भवन तैयार हुआ। जो प्रिन्स ऑफ़ वेल्स "सरस्वती भवन" के नाम से विख्यात हुआ। इस पुस्तकालय में एक लाख से अधिक पाण्डुलिपियों का अनुपम भंडार है। इसके द्वितीय मुद्रित प्रभाग में एक लाख से अधिक मुद्रित पुस्तकें हैं। वर्तमान में इम्फोसिस फाउंडेशन के आर्थिक सहयोग से पाण्डुलिपियों को संरक्षित किया जा रहा है। पुरातत्व संग्रहालय-- प्रथम कुलपति डॉ आदित्यनाथ झा के कार्यकाल में 1958 में पुरातत्व संग्रहालय की स्थापना हुई। इसके प्रथम अध्यक्ष डॉ नीलकंठ पुरूषोत्तम जोशी ने इसका शुभारम्भ किया था। विवि परिसर में बौद्ध कक्ष, आर टी एच ग्रिफिथ द्वारा रचित वाल्मीकि रामायण का अंग्रेजी अनुवाद (ग्रिफिथ स्मारक) स्थली,नाट्यशाला,यज्ञशाला,श्रौत विहार,स्मार्त यज्ञशाला,पं सुधाकर द्विवेदी वेधशाला,लाल भवन,क्रीड़ा क्षेत्र,पंच मन्दिर ,वाग्देवी मन्दिर ,स्तुप आदि धरोहर का जीर्णोद्धार एवं विकास कर इसे पर्यटन स्थल के रूप में स्थापित करने की योजना है। हिन्दुस्थान समाचार/श्रीधर